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पगली बदली चाँद को ही खा गयी

2122 2122 212

चाँदनी बदली को इतना भा गयी 

पगली बदली चाँद को ही खा गयी 

जिसको रोता देख हमने की मदद

वो ही बिपदा बन मेरे सर आ गयी 

हक़ की मैंने की यहाँ है बात जब 

गोली इक बन्दूक की दहला गयी 

जिस घड़ी लव पे हँसी आयी मेरे 

वो उसी पल अश्क से नहला गयी 

जान से मारा मगर जब बच गया 

आ मेरे घावों को वो सहला गयी 

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 23, 2015 at 8:59pm

आ0 आशुतोष भाई जी, प्रणाम!   सुंदर गज़ल हुई है. दाद कुबूल करें.  सादर 

Comment by मनोज अहसास on May 23, 2015 at 8:24pm
इस समय सभी वरिष्ट ग़ज़लकार समीक्षक तरही मुशायरे में बिजी है
ये खाकसार आपको इस खूबसूरत ग़ज़ल पर दिल से बधाई देता है
सादर

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