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थोड़-थोडा(कविता)

थोड़ा-थोड़ा तुझसे अटकने लगा हूँ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं भटकने लगा हूँ।
छोटी-छोटी बातें न समझा कभी,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं समझने लगा हूँ।
गरजा हूँ बहुत पहले बातों पे  मैं,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं सरसने लगा हूँ।
बदली वह लदी  कब से ढोये चला ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं बरसने लगा हूँ।
शुकूं में था प्यासा,नजर तेरी पी के ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं तरसने लगा हूँ।
कहाँ-कहाँ अबतक अटकता रहा था,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं झटकने लगा हूँ।
भटकता फिरा हूँ मैं ,तेरी नजर में
थोड़ा-थोड़ा अब मैं फटकने लगा हूँ।
'मौलिक व अप्रकाशित'

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Comment by Manan Kumar singh on May 24, 2015 at 7:27pm

आदरणीय श्याम भाई, गोपाल भाई ! बहुत-बहुत आभार आप का। 

Comment by Shyam Narain Verma on May 23, 2015 at 12:40pm
इस भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 23, 2015 at 12:03pm

थोड़ा सा प्रवाह  और चाहिए  जैसे-

बातों पे पहले मैं गरजा बहुत पर
थोड़ा-थोड़ा अब मैं सरसने लगा हूँ।

बदली को ढोता रहा देर तक मैं

थोड़ा-थोड़ा अब मैं बरसने लगा हूँ।

शुकूं में था प्यासा नजर,तेरी पीकर
थोड़ा-थोड़ा अब मैं तरसने लगा हूँ

कहाँ तक रहे अब ख्यालों की अटकन
थोड़ा-थोड़ा अब मैं झटकने लगा हूँ।

नहीं पास आने की जुर्रत थी मेरी
थोड़ा-थोड़ा अब मैं फटकने लगा हूँ।

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