एकाकीपन
उदासियां--!
मन के कोनो अतरों में जीती
सुबह -दोपहर-सायं
एकान्त की काकी, एकाकी
क्यों ? न पालती अपने नौलिहाल
रस-छन्द-अलंकारों को
अलसाई तन्द्रा
इन्द्रधनुषी रंग में रॅगती- कोरी चुनरी
ईर्षा,-द्वेष, छल-कपट से टॉकती
अहं के चमकते सितारे
अति निष्ठुर ।
हथेली की उॅगलियों में फॅसी ध्रुम द-िण्डका
रह-रह कर जलती- बुझती.....कुढ़ती
आवारा काले बादलों सा उगलती ....धुआँं
कलेजों के टुकड़ाें की धौंकनी बढ़ जाती
श्वांसें घुटने लगती
असह्य पीड़ा में खॉसता.....पूरी ताकत से
रक्त के कण-कण घबराकर बाहर झॉकतें
श्वांसें दिखाई नहीं देतीं
सुबह, दोपहर, सॉझ......क्या?
समय भी भाग खड़ा हुआ
दिन ढलने के पहले ही
एकान्त की काकी.... एकाकी ...साफ करती-
धरा पर बिखरे रक्त कण के धब्बे
विकास के,
इतिहास के,
परिहास के
आज भी उदासियॉं अजर-अमर
खण्डहरों में संरक्षित
एकान्त की काकी......एकाकी
मन के कोनों-अतरों में
ढूॅढ़ती है अपने नौनिहालों के लिए
आस्था - प्रेम
और संस्कृति के पद चिन्ह.....।
के0.पी.सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
एकान्त की काकी - एकाकी !
क्या भाई केवल जी, क्या-क्या सोच लेते हैं !
इसी तर्ज़ पर कहें तो, शोर का मामा - हंगामा.. :-))
आ0 गोपाल भाईजी, प्रणाम! कविता पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया लिये आपका हार्दिक आभार. सादर,
आ0 समर भाईजी, प्रणाम! कविता पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया लिये आपका हार्दिक आभार. सादर,
एकांत की काकी
अद्भुत कल्पना है 'सत्यम' जी . आपको बधाई .
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