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ग़ज़ल - गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ? // --सौरभ

२१२२ १२१२ २२

साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?

चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?

सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?

चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?

मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !

खुदकुशी के हुनर में माहिर हूँ
कामना क्या, मुझे बधाई क्या ?

लग गया खूँ अगर किसी मूँ को,
फिर तो मालूम है, दवाई क्या !
***************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 2068

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 3:54pm

भाई गणेश बागीजी, मन प्रसन्न कर दिये. इस बार सारे शेर हमने अलग-अलग कोण से रेखांकित करते रखने का प्रयास किया था. यानी, सान्द्र कहन के साथ. सो, हौसला अफ़ज़ाई के लिए धन्यवाद.

यही कहते हैं, देखे नहीं दिखा और समझे नहीं समझ में आया. शेरों के कहन को सान्द्र करने में इस पक्ष में कसक रह गयी. पहले मतले में ’बुराई’ और ’भलाई’ की जुगलबन्दी थी. अचानक ’पहाड़-राई’ सूझ गया. अब मतले के उला में ’बुराई’ को ’हिनाई’ या ’हँसाई’ या ’सफ़ाई’ ऐसा कुछ करना होगा.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 3:49pm

आदरणीय नीलेशजी, कम शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है, हौसला आफ़ज़ाई के लिए हार्दिक धन्यवाद


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 26, 2015 at 2:57pm

आदरणीय सौरभ भईया, सभी शेर बहुत ही महीन कहन के साथ प्रस्तुत हुए हैं. जब साहित्य व्यवसाय बन जाय तो उसका मूल स्वरुप विद्रूप हो ही जाता है इस भाव को समाहित करता शेर ...लाभ पढ़ ..मुनाफा लिख ....बेहद खुबसूरत बन पड़ा है. अंतिम शेर पर क्या कहूँ बस पढ़ पढ़ मस्त हुआ जा रहा हूँ ....गोली मार भेजे में ...आय हाय हाय. बहुत सुन्दर. बहुत बहुत बधाई.

एक बात : इ काफिया बंदी लागत बा गड़बड़ा गईल, तनिक मतला फेनु देखि :-)

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 26, 2015 at 2:34pm

बहुत बहुत खूब ... 
सभी शेर बहुत अच्छे हुए हैं ..
बधाई आदरणीय 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 3:00am

वल्लाह !
ग़ज़ल पसंद आयी यह जानना ही उत्साहित कर रहा है. उस पर से शेर दर शेर आपने तब्सिरा कर तो जैसे मुग्ध कर दिया, आदरणीय मिथिलेश भाई !
शुभेच्छाएँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 26, 2015 at 12:41am

आदरणीय सौरभ सर, छोटी बह्र की उम्दा और बेहतरीन ग़ज़ल हुई है.

साफ़ कहने में है बुराई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?.............. बेहतरीन मतला .... राई का पहाड़ का बहुत सुन्दर और नया प्रयोग 

चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ? 
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?..............अवसरवादी बाजारवाद पर बढ़िया कहन 

सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?.......... इस शेर पर दिल से दाद हाज़िर है ...हासिल-ए-ग़ज़ल 

चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?..... बहुत ही समीचीन शेर .... अब वो सभा नहीं बुलाते आखिर चाँद हो गए है 

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?.......... बढ़िया तंज 

मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !........... क्या नजाकत है कहन में ...बारीक़ बात 

खुदकुशी के हुनर में माहिर हूँ
कामना क्या, मुझे बधाई क्या ?........ वाह वाह 


लग गया खूँ अगर किसी मूँ को,
फिर तो मालूम है, दवाई क्या !........... बढिया शेर 

इस ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई निवेदित है 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:56pm

नादिर भाई, आपने जिस गहराई से इस ग़ज़ल को जीया है वह मुझे भी संतोष दे रहा है. मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ.
हार्दिक शुक्रिया भाईजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:56pm

आदरणीय मोहन बेगोवालजी, आपको प्रस्तुति संतुष्ट कर पायी मुझे भी अच्छा लगा है.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:56pm

भाई केवल प्रसादजी, हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:56pm

आदरणीय गोपाल नारायनजी, प्रस्तुति आपको पसंद आयी यह मेरा सौभाग्य है. आपका हार्दिक आभार  

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