1222/ 1222/ 1222/ 1222
किसी की चश्मे नम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
गरीबों के शिकम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी की *पेट
जिन्हें तू अपने पीछे यूँ तड़पता छोड़ जाता है
ये वो हैं जिनके दम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
न जाने नींद कैसे आती है ऐ बेरहम तुझको
तेरे कारे सितम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
कोई ये देख पाता काश कुछ भी कहने से पहले
कि कितने पेचो-खम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
पलट के देख लो मायूस चेहरों की तरफ़ इक बार
किस उम्मीदे करम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
-मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल .बधाई
आ0शिज्जू भाई जी, बेहतरीन गज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें. सादर
आदरणीय निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया बुलंदी और बलंदी दोनों सही हैं
भाई जान गोरखपुरी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय समर कबीर साहब आपका बहुत बहुत शुक्रिया मिसरा सुधार दिया है
वाह वाह वा ....
बहुत ख़ूब....तंज़िया ग़ज़ल हुई है ..जनाब ..
बधाई
आ0 शिज्जू भाई
बहुत बलंद गजल . हम तो बुलंदी को सही समझते रहे . सादर .
वाह! आ० शिज्जू सर बेहतरीन और बुलन्द गजल पर हार्दिक बधाई निवेदित है!सादर!
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