२१२२ १२१२ २२
हुस्न वाले सलाम करते हैं
क़त्ल यूं ही तमाम करते हैं
वो मसीहा चमन को लूट कहे
काम ये लोग आम करते हैं
आग दिल में लगाते गुल दिन में
रात तन्हाई नाम करते हैं
काम मेरा हुनर जो कर न सका
मैकदे के ये जाम करते हैं
जाम छूते मेरे हंगामा क्यूँ
शेख तो सुब्हो-शाम करते हैं
कैसे रिश्तों में वो तपिश मिलती
रिश्ते जब तय पयाम करते हैं
उनको बुलबुल तभी ये भाती है
जब ये उसको गुलाम करते हैं
दिल में खंजर छुपा के बैठे पर
मिलते ही राम राम करते हैं
सोना चढ़ कर के सर पे बोल रहा
काम ये उसके दाम करते हैं
हिन्दू मुस्लिम के बीच खाई को
गहरा पंडित इमाम करते हैं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० आपकी व्याख्या से अर्थ स्पष्ट हुआ!पर ''वो मसीहा'' से बात स्पष्ट नही हो रही ''खुद को मसीहा कहने वाले'' ऐसा कुछ भाव रहता तो ज्यादा स्पष्ट होता!सादर!
प्रिय कृष्णा जी . मसीहा शब्द मैंने इस लिए लिया था क्योंकि तमाम धर्म गुरु जो जमाने के लिए मसीहा बने हुए हैं उन्होंने जो कृत्य किये हैं उनसे कितने ही लोगों के खुशी में दिन गुजारते परिवार मानसिक अवसाद की स्थिति में आ गए ..मैंने ये सोच कर लिखा था ..आपके बिचार के अनुरूप चिंतन करके उचित संसोधन करने का प्रयास करूंगा ..सादर
आदरणीय समर कबीरजी ..रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूँ ..आपके मशविरा बिलकुल सही है मैं उचित संसोधन करने का प्रयास करूंगा सादर
प्रिय कृष्णा जी ..आपके इन स्नेहिल उत्साहवर्धक शब्दों के लिए दिल से धन्यवाद सादर
आदरणीय नूर जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
वाह! वाह! आ० आशुतोष सर! सुन्दर गजल हुयी है हार्दिक बधाई!
मुझे 'मसीहा' शब्द का चयन तनिक जम नही रहा! निवेदन है कृपया देख लीजिये!
वाह आ. आशुतोष जी .... बहुत अच्छे ..बधाई
आ0 आशुतोष भाई जी, // दिल में खंजर छुपा के बैठे पर, मिलते ही राम राम करते हैं //.........सुंदर गज़ल के लिये दाद कुबूल करें. सादर
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