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तेरी तहरीर में हर्फ़े वफ़ा है क्या नहीं
कहीं दिल में मेरी कोई जगा (जगह )है क्या नहीं
पँहुचते ही नहीं मुझ तक कभी तेरे ख़ुतूत
लिखा उन पर मेरे घर का पता है क्या नहीं
मेरे ही सामने करते हो गैरों पे करम
इन आँखों में कहीं कोई हया है क्या नहीं
तेरे प्याले में मैंने कर दिया ख़ाली सबू
मुहब्बत का मेरी कोई नशा है क्या नहीं
फ़सुर्दा फूल बन के रह गई चाहत मेरी
इनायत में तेरी ताज़ा हवा है क्या नहीं
क़ज़ा तक ले गई मुझको मेरी रुसवाईयाँ
दुआओं में तेरी कोई शिफ़ा है क्या नहीं
नज़र के सामने आके कशीदा ही रहे
कहूँ मैं क्या तुझे तेरी ख़ता है क्या नहीं
हर्फ़े वफ़ा =वफ़ा का शब्द
सबू =मदिरा का मटका
शिफ़ा =इलाज स्वास्थ्य
कशीदा =खिंचे खिंचे ,रुष्ट
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० सौरभ जी ,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया हर्षदायक है दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया सादर.
मतले ने महक बिखेरी है.. इस कदर इतना प्रभाव ? .. :-))
मेरे ही सामने करते हो गैरों पे करम
इन आँखों में कहीं कोई हया है क्या नहीं
जय हो..
कृष्ण मिश्रा भैया, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ |
बहुत ही बेहतरीन गज़ल हुयी है आदरणीया शेर दर शेर दिली दाद कबूल फरमाएं!सादर!
आ० नीलेश जी ,आपकी प्रतिक्रिया एक अलग मायने रखती है बहुत होस्लाफ्जाई करती है आपका कहना भी सही है पहले मैंने भी 'या' करके देखा था 'की' भी करके देखा था किन्तु या और क्या करने से एक महीन सा फर्क आता है जैसे या करने से मानव असमंजस की स्थिति में होता है तथा क्या करने से लगता है की इंसान असमंजसता के भाव तो रखता है किन्तु रुष्टता भी लिए हुए रूबरू सवालात कर रहा है बस इस महीन से अंतर को महसूस करते हुए या को बदल कर क्या किया था.आपका तहे दिल से बहुत बहुत आभार.
हमेशा की तरह आपने बहुत शानदार ग़ज़ल लिखी है ..
आपको हार्दिक बधाई ..
पढ़ते पढ़ते सहसा विचार आया कि क्या नहीं को कई जगह या नहीं करने से एक अलग प्रभाव उत्पन्न हो रहा है ...
इस्तेमाल हो सकता हो to देखिएगा
सादर
महर्षि त्रिपाठी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ |
आ० डॉ० गोपाल नारायण भाई जी ,आपकी प्रतिक्रिया हमेश मेरी लेखनी में नव ऊर्जा संचारित करती है आपका दिल से आभार सादर
आ० श्री सुनील जी ,इस जर्रानवाजी का तहे दिल से शुक्रिया .
आ० नरेन्द्र सिंह जी ,तहे दिल से आभार आपका.
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