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मुहब्बत का मेरी कोई नशा है क्या नहीं (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२

तेरी तहरीर में हर्फ़े वफ़ा है क्या  नहीं

कहीं दिल में मेरी कोई जगा (जगह )है क्या  नहीं

 

पँहुचते ही नहीं मुझ तक कभी तेरे ख़ुतूत

लिखा उन पर मेरे घर का पता है क्या  नहीं

 

मेरे ही सामने करते हो गैरों पे करम

इन आँखों में कहीं कोई हया है क्या नहीं

 

तेरे प्याले में मैंने कर दिया ख़ाली सबू

मुहब्बत का मेरी कोई नशा है क्या नहीं

 

फ़सुर्दा फूल बन के रह गई चाहत मेरी

इनायत में तेरी ताज़ा हवा है क्या नहीं

 

क़ज़ा तक ले गई मुझको मेरी रुसवाईयाँ

दुआओं में तेरी कोई  शिफ़ा है क्या नहीं

 

नज़र के सामने आके कशीदा ही रहे

कहूँ मैं क्या तुझे तेरी ख़ता है क्या नहीं

हर्फ़े वफ़ा =वफ़ा का शब्द 

सबू =मदिरा का मटका 

शिफ़ा =इलाज स्वास्थ्य 

कशीदा =खिंचे खिंचे ,रुष्ट 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 9, 2015 at 9:36pm

आ० सौरभ जी ,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया हर्षदायक है दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया  सादर. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 9, 2015 at 8:15pm

मतले ने महक बिखेरी है.. इस कदर इतना प्रभाव ? ..  :-))

मेरे ही सामने करते हो गैरों पे करम
इन आँखों में कहीं कोई हया है क्या नहीं
जय हो..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 4, 2015 at 9:22am

कृष्ण मिश्रा भैया, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ | 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 3, 2015 at 9:37pm

बहुत ही बेहतरीन गज़ल हुयी है आदरणीया शेर दर शेर दिली दाद कबूल फरमाएं!सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2015 at 12:11pm

आ० नीलेश जी ,आपकी प्रतिक्रिया एक अलग मायने रखती है बहुत होस्लाफ्जाई करती है आपका कहना भी सही है पहले मैंने भी 'या' करके देखा था 'की' भी करके  देखा था किन्तु या और क्या करने से एक महीन सा फर्क आता है जैसे या करने से मानव असमंजस की स्थिति में होता है तथा क्या करने से लगता है की इंसान असमंजसता के भाव तो रखता है किन्तु रुष्टता भी लिए हुए रूबरू सवालात कर रहा है  बस इस महीन से अंतर को महसूस करते हुए या को बदल कर क्या किया था.आपका तहे दिल से बहुत बहुत आभार.  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 11:27am

हमेशा की तरह आपने बहुत शानदार ग़ज़ल लिखी है ..
आपको हार्दिक बधाई ..
पढ़ते पढ़ते सहसा विचार आया कि क्या नहीं को कई जगह या नहीं करने से एक अलग प्रभाव उत्पन्न हो रहा है ...
इस्तेमाल हो सकता हो to देखिएगा 
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2015 at 9:50am

महर्षि त्रिपाठी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2015 at 9:49am

आ० डॉ० गोपाल नारायण भाई जी ,आपकी प्रतिक्रिया हमेश मेरी लेखनी में नव ऊर्जा संचारित करती है  आपका दिल से आभार सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2015 at 9:47am

आ० श्री सुनील जी ,इस जर्रानवाजी का तहे दिल से शुक्रिया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 3, 2015 at 9:46am

आ० नरेन्द्र सिंह जी ,तहे दिल से आभार आपका. 

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