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मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है
जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है
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रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर
तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है
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वो मेहरबां है तो कुछ और न सुनाई दे,गर हो जाय खफा तो
चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है
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बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले
आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है
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इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी
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Comment
भाई manoj जी,शुक्रिया,आभार!
आ० भाई महर्षि जी,गजल की पसंदगी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया,आभार!
आ० मोहन सेठी 'इन्तजार' सर!गजल पर आपकी आत्मीय प्रसंशा के लिए हार्दिक आभार सर! सादर!
आ० श्याम नरायन वर्मा जी बहुत बहुत शुक्रिया!
आ० भाई विनय कुमार जी आपकी आत्मीय प्रसंशा से बहुत उर्जा मिली,भाई इसी प्रकार अपना स्नेह बनाये रक्खें!तहेदिल से आपका शुक्रिया व् आभार!
आ० गोपाल नरायन सर! सादर प्रणाम! आ० आपके और इस पावन मंच के सभी गुरुजनों,भाइयों ,मित्रों के सतत मार्गदर्शन और आशीर्वाद तथा ईश्वर की कृपा से ही यह गज़ल आकर ले सकी है,मेरा सौभाग्य है!आ० ऐसे ही अपना वरदहस्त बनायें रक्खें!
आ० सुशील सरन जी!गजल आपको पसंद आई,रचनाकर्म सफल हुआ! उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया!हार्दिक आभार!
आ. मैं निःशब्द हूँ,,,बहुत ही खुबसुरत गजल कही है आपने ,आ.गोपाल सर से सहमत ,,,,ये कुछ मिसरे जो मुझे अच्छे लगे
मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है
जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है
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रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर
तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है
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वो मेहरबां है तो कुछ और न सुनाई दे,गर हो जाय खफा तो
चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है...वाह वाह !!बस यही निकल रहा |
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