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उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे (ग़ज़ल 'राज')

२२२२ २२२२ २२२२   

दुनिया ने तो  काँटे बोये कैसे कैसे  

चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे  

 

काँटों तक ही दर्द नहीं सीमित था अपना  

बातों- बातों तीर  चुभोये कैसे कैसे

 

तुमको देखा तो जाने क्यों आया जाला

मल-मल कर आँखों को धोये कैसे कैसे

 

एक हथेली दूर जहाँ पर दूजी से हो 

हम नाते-रिश्तों को ढोये  कैसे कैसे

 

काले काले मेघों की थी भूलभुलैय्या  

उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे  

 

सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू   

 आजू-बाजू विषधर  सोये कैसे कैसे

 

जिन सपनों को फेंक दिया था घर से बाहर 

 पलकों ने वापस संजोये  कैसे कैसे

पुछल्ला –

सूख चुका है भीतर से जज्बाती सागर 

ग़ज़लों के अशआर भिगोये कैसे कैसे

(मौलिक एवं अप्रकाशित) 

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Comment

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Comment by rajesh kumari on June 25, 2015 at 11:32am

मिथिलेश जी ,अभिभूत हूँ ग़ज़ल पर शेर दर शेर समीक्षा पढ़कर आपका लाख लाख धन्यवाद मेरा लिखना सफल हुआ दिल खुश कर दिया आपने |ये मिसरा ऐसे लिखूँ तो कैसा लगेगा ---पलकों ने फिर आन सँजोये  कैसे कैसे


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 1:48am

वाह वाह दीदी क्या कमाल का मतला हुआ है ... बस झूम गया हूँ -

दुनिया ने तो  काँटे बोये कैसे कैसे  

चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे  

शेर दर शेर----->

काँटों तक ही दर्द नहीं सीमित था अपना  

बातों- बातों तीर  चुभोये कैसे कैसे........ वाह वाह क्या खूब शेर हुआ है दाद दाद दाद 

 

तुमको देखा तो जाने क्यों आया जाला

मल-मल कर आँखों को धोये कैसे कैसे...... कमाल का चित्र खींचा है वाह वाह 

 

एक हथेली दूर जहाँ पर दूजी से हो 

हम नाते-रिश्तों को ढोये  कैसे कैसे.........बढ़िया 

 

काले काले मेघों की थी भूलभुलैय्या  

उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे  ..... बेहतरीन शेर ... बड़ा शेर 

 

सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू   

 आजू-बाजू विषधर  सोये कैसे कैसे............ कहाँ से ले आई आप ये विचार ... बस झूम रहा हूँ इसे पढ़कर 

 

जिन सपनों को फेंक दिया था घर से बाहर 

 पलकों ने वापस संजोये  कैसे कैसे............ बढ़िया शेर...कमाल की कहन.. (दीदी संजोये/सँजोये दोनों रूप प्रचलित है पर एक बार और विचार कीजियेगा क्योकि बढ़िया शेर में थोड़ी अड़चन लग रही है यानि गेयता भंग हो रही है.)


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Comment by rajesh kumari on June 13, 2015 at 9:51pm

कृष्ण मिश्रा जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ तहे दिल से आभार आपका. 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 13, 2015 at 9:29pm

सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू   

 आजू-बाजू विषधर  सोये कैसे कैसे        लाजवाब!

इस बेहतरीन गज़ल पर हार्दिक अभिनन्दन आदरणीया!बहुत कुछ सीखने को मिला! सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 11, 2015 at 10:50pm

आ० मदन मोहन जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से आभार आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 11, 2015 at 10:49pm

आ० नीलेश जी ,आपका बहुत बहुत आभार .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 11, 2015 at 9:23pm

आ० समर कबीर भाई जी,आपका बहुत बहुत शुक्रिया  -मिसरा -पलकों ने वापस संजोये कैसे कैसे -उला की बात को कम्प्लीट कर रहा है यदि ऐसे करुँगी तो ख़्वाब और स्वप्न एक ही बात का दुहराव हो जाएगा ""पलकों ने फिर ख़ाब संजोये कैसे कैसे " संजोये /सँजोए दोनों ही शब्द प्रचलित हैं अतः मैं समझती हूँ बह्र में ही हैं |

पुछल्ला भाई जी ,मैंने भी ओबिओ से ही सीखा था अतः भेड़ की चाल में मैं भी हूँ आपकी बात समझ गई ...दिल से आभार आपका .

Comment by Madan Mohan saxena on June 10, 2015 at 4:30pm

बहुत खूबसूरत अहसास पिरोये हैं आपने इस ग़ज़ल में आदरणीय। हार्दिक बधाई।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 10, 2015 at 3:22pm

आदरणीया राज जी ...मुझे तो ग़ज़ल के भाव पसंद आये ..रचनाकार की नयी सोच दिखी ..तकनीकी पक्ष के बारे में आदरणीय समरजी और गिरिराज भाईसाब के साथ हुई बिस्तृत चर्चा से और उस पर आपकी प्रतिक्रिया से तमाम कुछ सीखने को मिला ..इस रचना पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 10, 2015 at 12:52pm

बहुत ख़ूब आ. राजेश कुमारी जी.
समर साहब की विस्तृत चर्चा ए बहुत मार्गदर्शन हुआ है ..
बधाई 

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