" क्यों नहीं हो सकता ये , मैं रह सकती हूँ तुम्हारे घर तो तुम क्यों नहीं रह सकते मेरे घर शादी के बाद "|
" लेकिन लोग क्या कहेंगे , घर जमाई बन गया | मेरे घरवाले भी तो तैयार नहीं होंगे "|
" जब मुझसे शादी का फैसला किया था , तब क्या लोगों की परवाह की थी तुमने | और तुम्हारे घर तो भैया का परिवार है ही , मैं तो एकलौती लड़की हूँ अपने पेरेंट्स की , उनको कैसे अकेला छोड़ दूँ "|
" ठीक है , मैं घर में बात करता हूँ | क्या हम लोग आते जाते नहीं रह सकते "|
" आते जाते तो हम लोग यहाँ से भी रह सकते हैं , तुम्हें यहाँ रहने में क्या दिक्कत है । हमारी गैरहाजिरी में अगर उनको कुछ हो गया तो , आखिर उनका ध्यान रखना भी तो हमारा दायित्व है "|
" ठीक है , मैं कोशिश करता हूँ "|
" सीधे सीधे क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मेल ईगो आड़े आ रहा है "|
वो निरुत्तर हो गया , बात ने कहीं न कहीं गहरे असर किया था । शायद ग्लेसियर पिघल रहा था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय वीर मेहता जी । सादर धन्यवाद ..
सुन्दर और सार्थक कथा ! एक गंभीर सोच को सामने लाती रचना ... सादर बधाई आदरणीय विनय कुमार जी
बहुत बहुत आभार आदरणीया सुनील प्रसाद(शाहाबादी) जी.
बहुत बहुत आभार आदरणीया कान्ता रॉय जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीया रीता गुप्ता जी.
शीर्षक और कथा दोनों ही बेहद ख़ूबसूरत .मुद्दा आपने बहुत जायज सा उठाया है ,बदलाव की बयार अब वांछनीय है .
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी .
बात ने कहीं न कहीं गहरे असर किया था । शायद ग्लेसियर पिघल रहा था ।---------------आज के प्रासंगिक विषय पर आपन बहुत अच्छे कथा प्रस्तुत की . सादर.
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