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आदरणीय सुनील प्रसादजी, आपकी इस प्रस्तुति पर सार्थक चर्चा हो चुकी है. आप चाहें तो तदनुरूप एडिट कर लें.
सादर
आदरणीय सुनील जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है
हार्दिक बधाई
बहुत ख़ूब आ० सुनील जी.सुन्दर गजल हुयी है.हार्दिक बधाई सादर!
आदरणीय सुनील शाहबादी भाई , लाजवाब अशआर हुये हैं सभी , दिली मुबारक बाद कुबूल कीजिये ।
एक गम्भीर गलती मतले मे हो गई है , काफिया निर्धारण , --
हसरतें बेताब जलने दो ज़रा।
दौर गम का ये पिघलने दो जरा। --- काफिया - अल ने , और रदीफ दो ज़रा तय हुआ है । आगे के बहुत से शे र काफिया के कारण खारिज़ हो रहे हैं --- हँसने दो , बसने दो , रखने दो , और महकने दो -- इनमें काफिया अ ने दो आ रहा है । मतले में बदलाव ज़रूरी है । गौर कीजियेगा । सादर ।
//मन जला है तन जला है इश्क में,
प्यार की अब साँझ ढलने दो ज़रा // । बहुत बहुत बधाई क़ुबूल करें आदरणीय सुनील जी इस खूबसूरत रचना के लिए..
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