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गीतिका- *रंग में जिंदगी को*

बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
मापनी-212__212__212__212,
समांत-(आते)___पदांत-(चलो)
पूर्णत: हिंदी व्याकरण पर आधारित रचना,
******************************
रंग में जिंदगी को डुबाते चलो।
शब्द मेरे लबों पर सजाते चलो।
------
जख्म रिसते रहें हो तुम्हारे अगर,
दर्द का गीत ही गुनगुनाते चलो।
-------
हो सरस फुल या कुम्हलाई कली,
जो मिले दिल उन्हीं से लगाते चलो।
-------
काँपते पैर हैं ढूँढते मंजिले,
राह में वो गिरें तो उठाते चलो।
-------
अजनबी कौन है दोस्तों अब यहाँ,
हाल अपना सभी को सुनाते चलो।
-------
सो रहे हैं कफ़न ओढ़कर लोग कुछ,
भोर बनके उन्हें भी जगाते चलो।
-------
भूत है वो अकेला नहीं आदमी,
हैं बहुत हमसफ़र जो बनाते चलो।
-------
हो ख़ुशी जो अधिक पास में आपके,
कुछ गरीबों दुखी पर लुटाते चलो।
--------
सूर्य बनके नहीं तो दिवा ही सही,
रास्तों को उजाले दिखाते चलो।
--------
कर जतन ये नहीं हो बगावत कभी,
बन गये रश्म रिश्ते निभाते चलो।
----------
मौलिक और अप्रकाशित रचना।

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Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on July 8, 2015 at 8:07pm
रचना पर आकर अपने सुन्दर विचार रखने के लिए सादर आभार आदरणीय श्री सुनील जी आप भी रचनाकार हैं आपकी भी अपनी दृष्टिकोण है जो मुझसे इतर ज्यादा खूब हो सकता है परन्तु रचनाकर्म रचनाकार के दिल पहले फिर पाठक के दिल को छुता है यहाँ जिंदगी को चलते हुए देखना ही मेरी नियत थी बस।
Comment by shree suneel on July 7, 2015 at 10:14pm
आदरणीय सुनील प्रसाद शाहाबादी जी, सुन्दर, भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई. वैसे. ..मुझे लगता है यदि समांत और पदांत का इससे इतर चयन किया जाता तो रचना मे और नयापन होता. सादर.
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on July 6, 2015 at 9:50pm
अंतस मन से आभार आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी आपको।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on July 6, 2015 at 9:49pm
आदरणीय मोहन सेठी जी सप्रेम आभार गीतिका आपको अच्छी लगी।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on July 6, 2015 at 9:46pm
प्रथम आभार और नमन आद.मिथिलेश वामनकर जी आशय स्पष्ट है वो आदमी नहीं भूत है जो अकेला है क्योकि बनाओ तो हमसफ़र हजारो बन जाते है
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 6, 2015 at 8:25pm

सूर्य बनके नहीं तो दिवा ही सही,
रास्तों को उजाले दिखाते चलो।

बेहतरीन!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 6, 2015 at 7:21pm

आदरणीय सुनील प्रसाद जी हिंदी में ग़ज़ल की रचना के लिये बधाई ...उम्दा .....सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 6, 2015 at 3:36pm

आदरणीय सुनील जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई 

भूत वाला शेर समझ नहीं आया 

Comment by Shyam Narain Verma on July 6, 2015 at 10:15am

बहुत उम्दा ... बहुत बहुत बधाई

सादर 

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