हजज मुरब्बा सालिम
1222 1222
खुदा से जो भी डरता है
खुदा को याद करता है
समय है जानवर ऐसा
जरा धीरे से चरता है
कृषक की छातियाँ देखो
पसीना नित्य झरता है
बिछे जब राह में काँटे
पथिक पग सोंच धरत़ा है
भला है जानवर उससे
उदर जो आप भरता है
अमर तो है वही बेटा
वतन पर सद्य मरता है
क्षरण तो है यहाँ निश्चित
विहँस कर काल छरता है
खजाना आँख का है यह
कभी मोती सा ढरता है
नदी गंगा का यह पानी
बिना तारे न तरता है
बरत वैसा न पायेंगे
जहाँ ने जैसा बरता है
रहा मनहर हमेशा जो
वही इस मन को हरता है
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० वामनकर जी
आपका आभार .
बरत वैसा न पायेंगे
जहाँ ने जैसा बरता है
ये शेर बस वाह वाह वाह
कमाल कमाल कमाल
आदरणीय गोपाल नारायण सर
बहुत ही बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है
छोटी बह्र में में आपने शानदार ग़ज़ल कही है
दाद दाद दाद
ढेर सारी दुआ
आप ऐसे ही बेहतरीन गज़लें लिखते रहे
आ० आशुतोष जी
आपका सादर आभार .
आदरणीय गोपाल सर जीवन दर्शन से जुड़े तमाम पहलुओं का बखूबी चित्रन करती इस शानदार रचना के लिए आपको ढेर सारी बधाई ..सादर प्रणाम के साथ
आ० निकोर जी
अभी सीख रहा हूँ आदरणीय . ससम्मान .
गज़ल बहुत अच्छी लगी। बधाई, आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी।
आ० समर कबीर साहिब
आप बेवजह परेशान है .यहाँ हम सबसे गल्तियां होती हैं और हम सब बैठकर उसे सही भी करते हैं . आपकी महारत से सब वाकिफ है आप निर्द्वंद मेरी रचनाओं पर अपनी राय देते रहे . सादर.
आ० चाहं जी
आभार स्वीकारें, कृपया .
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