रमल मुसम्मन सालिम
2122 2122 2122 2122
खो गए जो मीत बचपन के सिकंदर याद आते
ध्यान में आह्लाद के सारे समंदर याद आते
गाँव की भीगी हवा आषाढ़ के वे दृप्त बादल
और पुरवा के उठे मादक बवंडर याद आते
आज वे वातानुकूलित कक्ष में बैठे हुए हैं
किंतु मुझको धूप में रमते कलंदर याद आते
नित्य गोरखधाम में है गूँजती ‘आदित्य’ वाणी
देश को पर नाथ उन्नायक मछंदर याद आते
क्षिप्र-गति से छा गया है विश्व में लिव-इन रिलेशन
और हमको देवियों के वे स्वयंवर याद आते
नग्नता की बात हमसे फिल्म वाले क्या करेंगे
क्या नहीं उनको कभी नागा दिगंबर याद आते
हो चुका है देश का नेतृत्व अब इतना विषैला
आज जनता को नहीं विषधर भयंकर याद आते
बूँद तक आकाश से टपकी नहीं आसाढ़ बीता
गाँव की वर्षा प्रथम के वे दवंगर याद आते
है हुए कुछ ध्वस्त ऐसे आस्था प्राकार सारे
भक्त-भावक को नहीं गणपति शुभंकर याद आते
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दवंगर -वर्षा ऋतु के आरंभ में होनेवाली झड़ी । उ०—बिहरत हिया करहु पिउ टेका । दीठि दवँगरा मेरवहु एका ।—जायसी । (शब्द०) । २. वर्षा के आरंभ में पानी का कहीं कही एकत्र होकर धीरे धीरे बहना । (बुंदेल०)
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
अभ्यास के तौर पर बेहतर प्रस्तुति हुई है, आदरणीय गोपाल नारायनजी. शुभ-शुभ
आ० वामनकर जी
आपका आभार .
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, आदरणीय गोपाल नारायन सर, सभी अश’आर बहुत अच्छे हुए हैं। दिल से दाद कुबूल कीजिए.
प्रिय कृष्णा
सादर आभार .
आ० गोपाल सर,बहुत बेहतरीन गजल हुयी है,शेर दर शेर कमाल देख रहा हूँ!अभिनन्दन!
आ० धर्मेन्द्र जी
आपका बहुत बहुत शुक्रिया .
आ० अनुज
आपका अनुमोदन , बस आत्म मुग्ध हूँ .
आ० सुनील जी
आपका सादर आभार . .
आ० वीनस केसरी जी
आपसे तो बड़े गजलकार भी घबराते हैं , आपके अनुमोदन से लगता है सही राह पर चल रहा हूँ . इससे बड़ा संतोष मेरे लिए और कुछ नहीं हो सकता . सादर .
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