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आदरणीय सोमेश भाई, इस रचना से गुजरा हूँ मगर सरसरी तौर पर. कहानी लम्बी थी और बहुत सारी रचनाओं पर कमेन्ट करना था क्योकिं मैं ओबीओ से लगभग 20-25 दूर रहा. इसलिए रचना को गंभीरता से पढ़ नहीं पाया और कमेन्ट वैसे देना उचित नहीं था,
आज पुनः रचना पर उपस्थित हुआ हूँ और चकित हूँ आपकी रचना पढ़कर, जिस सधे ढंग से आपने कथानक के एक एक कथ्य को शाब्दिक किया है मुग्ध हूँ. एक अनुभव की तरह गुजरा हूँ इस कहानी से. आपकी संभावनाएं गद्य में स्पष्ट दिखाई देने लगी है. एक बेहतरीन कहानीकार को इस मुग्ध करती कहानी पर बहुत बहुत बधाई
तुलनात्मक निर्णय की तरह न भी लें तो आप अपनी गद्य-पस्तुतियों में कमाल रच सकने की क्षमता रखते हैं, सोमेश भाई.
मुझे आपकी एक लम्बी (ओबीओ के हिसाब से) कहानी याद आ रही है. मैं उस कहानी से जैसे चिपक गया था, जबतक पूरा नहीं कर लिया रुका ही नहीं. ऐसी लम्बी प्रस्तुतियों में पाठक को बाँध लेना खेल नहीं है. यह अलग बात है कि उस कथा पर पाठकों की गिनती की प्रतिक्रियाएँ तक नहीं आयी थीं. यह इस मंच के सक्रिय पाठकों की कैसी आदत है या कैसी विवशता है, इस पर मैं स्वयं दंग हूँ. खैर..
इस कथा में भी आपका विन्यास कई जगह कौंध जाती बिजली की तरह जगरमगर कर देता है. पठन-पाठन का गंभीर शौक रखने वाले एक युवा पति तथा अपनी वयस-सुलभ मनोभावनाओं को आवश्यक आकाश देने को छटपटाती उसकी पत्नी के बीच के आत्मीय किन्तु अव्यक्त रह जाने के कारण लगातार घुटते हुए सम्बन्ध को जिस दायित्व के साथ आपने अभिव्यक्त किया है वह आपकी संवेदनशील दृष्टि और गहन निरीक्षण-क्षमता का परिवायक है.
यह अवश्य है कि कथा-विन्यास में पारस्परिक संवादों को अभिव्यक्त करना सदा से कठिन प्रतीत होता रहा है. विशेषकर नये लेखकों को. पात्रों के नाम के साथ ’उसने कहा’, ’वह बोली’, ’वह बोला’ लिख कर संवादों को प्रस्तुत करना प्रवाह को लचर कर देता है. इसके निराकरण का सुन्दर उपाय यह है कि क्रिया और भंगिमा को संवादों के साथ जोड़ दिया जाय. इस तरह, ’उसने कहा’, ’वह बोली’ जैसे वाक्यों की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी. सर्वोपरि, ऐसे वाक्यों की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है ? किनके बीच संवाद हो रहा है का वर्णन होते ही इन्वर्टेड कॉमा के साथ लिखते हुए चलें. उन्हें समझने का काम पाठकों पर छोड़ दें, कि कौन सा वाक्य कौन कह रहा है ! किन्तु इसके पहले भावदशा को अभिव्यक्त करने का गहन अभ्यास हो जाय. इस हेतु प्रयासरत रहने की आवश्यकता है.
प्रस्तुत कहानी अच्छी है. इसे आवश्यक हल्का-फुल्का रखने का रोचक प्रयास मोहता भी है. फ़िल्मी गीतों का बहुत ही बढिया उपयोग हुआ है. इन सबके लिए धन्यवाद और शुभकामनाएँ.
अलबत्ता, आप नये हैं लेखक है यह सत्य बुलबुले की तरह सतह पर बार-बार आता रहता है.. हा हा हा.. ..
खैर, आपका दीर्घकालीन अभ्यास ऐसे सारे अनगढ़पन को समाप्त कर देगा, इसकी आश्वस्ति भी है.
सतत लगे रहें.
शुभेच्छाएँ
इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
जिंदगी सिर्फ चिंतन का विषय नहीं है, कभी - कभी सब भूल कर सिर्फ जी भी लेना चाहिए. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बधाई, आदरणीय सोमेश कुमार जी। सादर.
सहयोग में सभी विकार धुल जाते हैं. सुंदरकथा. बहुत-बहुत बधाई. आ0 सोमेशभाई जी.
बहुत ही बेहतरीन लिखा है आ० सोमेश भाई आपने,क्या कहने!आप की रचनाओं पर समयाभाव के कारण आजकल नही आ पा रहा था.आज आपकी इस रचना पर आकर मन गदगद हो गया!हार्दिक बधाई व् शुभकामनाए!
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