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सांझ की सौतेली दुहिता....निशा,
अति हृष्ट-पुष्ट,
द्वेष में लिप्त अति उर्वरा
सघन तम में भी फलती है,
असंख्य नखत
अभावों में जीते, रह-रहकर चमकते
दम्भ में हठी
राहू-केतु-भद्रा सी उप-िस्थति
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को विचलित करते
चन्द्र अति शक्तिशाली किन्तु क्षीण
विपक्ष का नेता शशि शापित
उच्चताप में भी चन्दन
विषधारियों से आच्छादित
क्षण भर की लापरवाही से सौरभ छीन लेता
......बुद्धि-मन-प्राण भी,
तन.....बर्फ सा कठोर
चॉदनी उफ तक नहीं करती
रजनी, स्वछन्द विचरती
अनन्त आकाश से वियावान वन में,
जल में
अन्तर्मन के आंगन में खेलती.
सत्य, सजग सावधान,
समाधि में लीन
रजनीचर अति उत्तेजित,
यज्ञ विध्वंश करते
बचा न पाते अशोक वाटिका
हनुमान की पूंछ सी लिपी-पुती सड़क
धधक कर जल उठती
चॉदनी असहाय ...नित्य राख सी उड़कर
स्याह मन की तख्ती पर लिखना चाहती
आत्मा का दर्द
पूस की रात इन्तजार नहीं करती
गला देती है,
कठोर अस्थि भी,
आत्मा कराह उठती
दामिनी चित्र सी चिपक जाती
यत्र-तत्र, सर्वत्र....दीवारों से झांकती
तारे जमीन पर झिलमिलाते.....
समूहों में
खोजते स्वयं का भविष्य!
आक्रोशित इंडिया गेट ........किंकर्तव्यविमूढ!
सहसा स्वर गूंजा.....
अब न सहेंगे।

के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on June 18, 2015 at 2:27pm
जनाब केवल प्रसाद जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 12:40pm
सांझ की सौतेली दुहिता...... अद्भुत प्रस्तुति है आपकी यहाँ इस कविता में इतनी सघनता है विचारों के गंथन मंथन की .... बहुत भाव अति सुंदर .....कोई रचना देर तक आपके मन में स्थापित हो जाये यह उन रचनाओं में से एक है ...... बधाई स्वीकार करें इस रचना के लिए आदरणीय केवल प्रसाद जी

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