बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए
फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये
मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये
जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये
सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये
जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये
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(मौलिक एवँ अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी
मजा आ गया आदरणीय धर्मेन्द्रजी.. बहुत खूब !
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
वाह वाह वाह .... शानदार ग़ज़ल हुई है सभी अशआर लाजवाब है
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी शेर दर शेर के लिये दाद हाज़िर है
वाह मुकम्मल ग़ज़ल ही लाजवाब है आदरणीय धर्मेन्द्र जी हर शेर के लिये दाद हाज़िर है
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये---------बहुत बहुत उम्दा आ०धर्मेन्द्र जी.
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