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सुनो, 

गर्मी बहुत है 

अपने अहसासों की हवा 

को जरा और बहने दो 

यादों के पसीनों को 

और सूखने दो 

सुनो, 

गर्मी बहुत है 

गुलमोहर के फूलों 

से सड़कें पटी पड़ी हैं 

ये लाल रंग 

फूल का 

सूरज का 

अच्छा लगता है 

अपने प्यार की बरसात को 

बरसने दो 

बहुत प्यासी है धरती 

बहुत प्यासा है मन 

भीग जाने दो 

डूब जाने दो 

सुनो,

गर्मी बहुत है .... 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 8, 2015 at 12:51am

आप इस मंच पर अभी सैलानी हैं आदरणीय. ऐसे में सदस्यों को सिर्फ़ ’सुनाना’ समझ में आता है. ’सुनना’ भी चाहिये को समझने में अभी समय लगेगा. बहरहाल, आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी है. इसके कथ्य में उद्विग्नता है तो है लेकिन एक ठहराव भी है. यही आकर्षित करता है.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2015 at 2:05pm

अच्छी लगी आपकी रचना ! बधाई  आपको । एक प्रश्न है आपसे - कभी आप दूसरे रचना कार की कोई भी रचना पढ़ी है , अगर आपने पढ़ी है , क्षमा चाहूँगा , मेरी अधूरी जानकारी के लिये ॥

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 26, 2015 at 8:51pm

सुन्दर! बधाई आ० अमोद जी!

Comment by विनय कुमार on June 26, 2015 at 12:10am

बहुत सुन्दर रचना , बधाई आदरणीय आमोद जी.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 25, 2015 at 8:36pm

आ0 आमोद भाई जी,  सुंदर रचना के लिये बधाई.  सादर

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