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मुस्कुराकर मौत जितनी पास आयी दोस्तो
ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो
बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई
हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो
धूप फिर से डर के पीछे हट गई है, पर यहाँ
जुगनुओं की अब भी जारी है लड़ाई दोस्तो
कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे
आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो
आईना सीरत हूँ मैं, जब उनपे ज़ाहिर हो गया
यक-ब-यक दिखने लगी मुझमें बुराई दोस्तो
सबके अपने दर्द हैं औ सबके अपने ज़ख़्म भी
कौन किसके घाव की कर दे सिलाई दोस्तो
काश ! ऐसा हो कि जब बस्ती जले, तो ये भी हो
शमअ बोले, आग किसने है लगाई दोस्तो
भूख की शिद्दत ने हमको ज़िन्दगी जीने न दी
हम कहाँ से लायें रंगे पारसाई दोस्तो ---- ( रंगे पारसाई - विरक्ति के रंग )
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
कहकहे यूँ मौत जितनी भी लगाई दोस्तो........ दिक्कत है यहाँ
ये न भूलो, ज़िन्दगी भी गुनगुनाई दोस्तो
बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई
हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो.....वाह
रोशनी जब डर के पीछे हट गई थी रात को
हमने आँखें तब अँधेरों से मिलाई दोस्तो..........हासिल-ए-ग़ज़ल ....दिल से दाद
कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे
आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो........ हा हा हा..... बढ़िया शेर ...बेहतरीन
मेरी पाकिट में छुपा जब आइना, जाहिर हुआ
सबको दिखने लग गई मुझमें बुराई दोस्तो.......... शेर को खोलना पड़ रहा है.... फिर भी खुल नहीं पा रहा...जेब में आईने का पता चला तो बुराई दिखने लगी ....जेब में आइना का अर्थ आत्म मुग्ध/ स्वयं की विशेषता जानने वाला या और कुछ ? स्पष्ट नहीं हो पा रहा हूँ. .... लेकिन शब्द विन्यास मुग्ध कर रहा है खास तौर पे सानी का
सबके अपने ज़ख़्म भी हैं , सबके अपने दर्द हैं
कौन किसके घाव की कर दे सिलाई दोस्तो..........ये भी बेहतरीन शेर
काश ! ऐसा हो कि जब बस्ती जले, तो ये भी हो
आग ख़ुद चीखे , कहे किसने लगाई दोस्तो................. कमाल का शेर
भूख ने तो ज़िन्दगी जीने की नौबत ही न दी
हम कहाँ से लायें रंगे पारसाई दोस्तो..... बढ़िया
हाले माजी , हाल , फ़र्दा सब पता जब है उन्हें
रस्म वो फिर क्यों निबाहें, मुँह दिखाई दोस्तों..... कल आज और कल सब पता है तो मुंह दिखाई की रस्म क्यों...बात समझ नहीं आई सर
इस प्रस्तुति पर बधाई सर,
बेहद सुन्दर गजल है ,,हर शेर काबिले तारीफ है ,,,,दिली दाद कुबुलें आ.गिरिराज भंडारी सर जी |
वाह वाह बधाई आपको ..सादर
आदरणीय कृष्णा भाई , गज़ल को पसंद करने के लिये आपका बहुत आभारी हूँ ॥
आदरणीय गुस्ताखी जैसी कोई बात नहीं है -- आप पूछ सकते हैं , कोई भी पूछ सकता है -- मुझे भी उस मिसरे पर शक था , मैने पूछ के ही लिखा है किन्ही जानकार से , फिर भी किसी अगर कोई बेहतर सुझाव आये तो सुधार कर लूँगा ॥ आभार आपका ॥
आदरणीय श्याम नारायण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥
बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई
हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो वाह! वाह आ० क्या कहने बेहतरीन
भूख ने तो ज़िन्दगी जीने की नौबत ही न दी
हम कहाँ से लायें रंगे पारसाई दोस्तो वाह वाह वाह! यह शेर बहुत लाजवाब हुआ है आ० नमन!
आ० गुस्ताखी माफ़ करें पर मतले में उला //कहकहे यूँ मौत जितनी भी लगाई दोस्तो// वाक्यविन्यास की दृष्टी से ठीक है क्या ??
सादर!
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय। |
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