“माँ तू खुद ही तो कहती है वो दरोगा अच्छा आदमी नहीं हैं और हम दोनो बहनों को उस से दूर ही रखती है.. फिर तू खुद वहाँ क्यों जाती है.., बचपन से देखती चली आ रहीं हूँ बापू के गुजरने के बाद से तू नियम से उसका खाना लेकर जाती है और देर रात वापस लौटती है. लोग कैसी कैसी बातें बनाते हैं.” बरसों से मन में घुमड़ते प्रश्न आज आखिर मदुरा ने माँ के सामने रख ही दिए..
“वो हमारा अन्नदाता है तो बदले में कुछ तो उसको भी देना ही होता है.” माँ ने बड़े शांत-भाव से उत्तर दिया और खाने का डिब्बा उठा कर गंतव्य की ओर बढ़ गई..
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आभार विजय निकोरे जी एवं सौरभ पाण्डेय जी आप गुणी जनों की सराहना बहत उर्जा प्रदान करती है...धन्यवाद सर.
ये जीवन है, इस जीवन का यही है .. ऐसा ही है .. रंग-रूप !
आदरणीया सीमाजी, हार्दिक बधाई..
उफ़ ... इतना अनकहा सच ! इस अनकहे सच को आपकी लघु कथा ने निपुणता से सामने रखा है।
आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया सीमा जी।
पंचलाइन ,,बहुत बढ़िया है,,,बधाई आपको |
अभी नाम सुधार के फिर से आपको बधाई दे देता हूँ आदरणीया ।
आदरणीया सीमा जी , अच्छी लगी आपकी लघुकथा , एक मज़बूर की सच्चाई ।
आदरणीया मीना जी , अच्छी लगी आपकी लघुकथा , एक मज़बूर की सच्चाई ।
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