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कड़वा सच (कहानी)

“माँ ये औरत मुझे सूरत से ही सख्त नापसंद है! आप मना कर दो इसको हमारे ना आया करे.”

मंशा को पता नहीं क्या हो जाता था, जब भी उस महिला को देखती. उसका सिर पर हाथ फिराना, चेहरा-बाहें छूने का प्रयास तो और भी घृणा से भर देता था. कितनी बार माँ को कहा भी, “उसको बोल दो मुझसे दूर रहे.” मगर उसकी हर छोटी बड़ी जिद पूरी करने वाली माँ इस बारे में कुछ ना सुनती.

मगर आज तो हद ही हो गई. उसने मंशा को छूना चाहा और मंशा ने ज़ोर का धक्का मार दिया. वो बेचारी फर्श पर गिर गई और मेज से टकरा कर सिर में चोट भी लग गई. साथ माँ के धैर्य का बांध भी टूट गया...

‘चटाक’

एक ज़ोरदार चांटा मंशा के गाल पर पड़ा. माँ ने उस बड़ी उम्र की स्त्री को उठा कर मरहम पट्टी की और पैसे देकर विदा कर दिया.

तमाचे की चोट चेहरे से ज्यादा दिल पर थी... पूरा दिन मंशा कमरे से ना निकली. ये माँ से मिली पहली प्रताडना ना थी, पर कारण वह था जिससे मंशा को नफरत की हद तक चिढ़ थी...

 

 

“एक दम बाजारू लगती है वो औरत. जैसे अपनी जवानी के दिनों में कोठेवाली रही हो. मुँह में पान, आँख में सुरमा और अदा से जब अपने बाल ठीक करती है तो लगता है मतली हो जायेगी मुझे!” पूरा दिन कमरे में बंद मंशा को खाने के लिए बुलाने आई माँ पर पूरी कड़वाहट उड़ेल दी.

“चल बहुत हुआ उनको छोड़ कुछ खा ले...” माँ ने बात को ना बढ़ाना ही उचित समझा. मगर मंशा तो जैसे आज निर्णय करके बैठी थी कि उसका सच जान कर ही रहेगी!

पहले तो माँ ने भरसक प्रयास किया टालने का मगर मंशा की मनःस्थिति देख माँ वहीं उसके पास बैठ गई.
“तू जानना चाहती है ना कौन है वो? क्या नाता है उसका हम से? क्यों आती है मेरे पास, क्यों इतना स्नेह रखती है तुमसे... सब बताऊंगी आज मैं, कुछ नहीं छुपाऊंगी.”

अचानक माँ जैसे बहुत गंभीर हो गईं थी. मंशा ने भी माँ को एक नए रूप मे देखा..
“बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी. शायद नौ या दस वर्ष की अवस्था रही होगी मेरी. या और भी छोटी, ज्यादा याद नहीं है..” माँ ने कहना शुरू किया तो मंशा भी खिसक कर माँ के और पास आकर बैठ गई. “मेरे पड़ोस में चाय की दुकान पर बैठ सारा दिन चाय पीता और आने जाने वालों को घूरा करता था ‘वो’. घर में माँ थी और पिता जी मील में नौकरी करते थे. हम पांच-सात बहन भाई घर में उधम मचाया करते. एक दिन माँ काम में व्यस्त थीं और मैं उनसे पैसा मांग रही थी. रंग-बिरंगी खट्टी मीठी गोली खानी थी मुझे. पता नही माँ का मन खराब था या मेरी किस्मत की मनहूसियत पैर फैला रही थी. माँ ने पैसे की जगह एक तमाचा दिया और मैं रोती-चिल्लाती सड़क पर आ खड़ी हुई. चाय वाले दादा ने पुचकार कर बुलाया और बिस्कुट देना चाहा. मगर मुझे तो खट्टी मीठी गोलियाँ ही खानी थी. इस पर ‘वो’ जो दुकान पर बैठा रहता था, उसने मेरी हथेली पर नन्ही सी एक गोली रख दी.  उस गोली से उसने मेरा भरोसा जीत लिया.  एक दिन एक बड़ी थैली भर कर गोली दिलाने ले गया और जब होश आया तो खुद को बनारस के एक कोठे में पाया.”

.

मंशा ने अपनी माँ आँखों में दुनिया भर का दर्द देखा... मगर माँ तो जैसे किसी गहरे समंदर में उतर चुकी थी... उसने मंशा पर ध्यान तक ना दिया और आगे कहना शुरू किया. “तरह तरह के इत्र की सुगंध और घुंघुरुओं की खनक और तबले की थाप पूरा वातावरण बता रहा था, कि मैं एक वेश्यालय में हूँ... किन्तु मैं नादान, मात्र इतना जान सकी कि मुझे धोखे से किसी अपरिचित स्थान पर लाया गया है. रोती-चीखती मासूम बच्ची को जिसने संभाला, वो थी तारा. वही जिसे जीजीबाईसा के नाम से तुम जानती हो...” माँ ने मंशा की ओर देखते हुए कहा.
“फिर माँ आप उस नर्क से बाहर कैसे आईं? पिता जी कहाँ मिले आपको? आप दोनों ने शादी कहाँ की? आपके परिवार वालों ने आपको कैसे खोजा?” मंशा ने व्यग्रता से माँ पर प्रश्नों की बौछार कर डाली. माँ ने एक निगाह मंशा पर डाली और गहरी उदासी में डूबी मुस्कान के साथ कहना प्रारंभ किया. “अभी तो कहानी शुरू हुई है बेटा. यातनाओं के दौर अभी बाकी हैं...” अब मंशा कुछ ना बोली बस अपलक माँ को देखती रही. उसकी समस्त संवेदनाएं जाग उठी थीं. अपनी माँ के अतीत से सर्वथा अपरिचित थी वो तो. अपनी दुनिया में मस्त हमेशा मुस्कुराने और अपार स्नेह उडेलने वाली माँ का अतीत इतना भयावह भी हो सकता था, मंशा को भान भी ना था. बस चकित सी सुने जा रही थी माँ की बातें.

 

माँ ने एक गहरी सांस लेकर आगे बताया. “तारा जीजीबाईसा उन दिनों वहाँ की मुख्य नर्तकी हुआ करती थीं. मेरी भी नृत्य शिक्षा आरम्भ हो गई. फुर्सत के पल मैं जीजीबाईसा के साथ बिताती. धीरे-धीरे हालात से समझौता कर ही लिया था मैंने. एक रात, सोते से किसी के हिलाने पर जगी तो देखा जीजीबाईसा थीं. मैं हडबड़ा कर उठी थी. उन्होंने चुप करने का इशारा किया और अपने साथ ले आईं. मैं भी उनींदी सी उनके पीछे-पीछे छत पर पहुँच गई. वहाँ ओट में एक युवक बैठा था जिससे मुझे मिलवा कर उन्होंने कहा हमारे साथ ये भी जायेगी.. मैं समझ गई थी कि बाईसा कौन सा खतरनाक खेल, खेल रही हैं. उस जेल से भागने की योजना बना रहीं थी और साथ में मुझे भी मुक्ति दिलाना चाहती थीं... नियत समय पर हम अपना सामान समेट कर भाग निकले और दिल्ली आ पहुँचे. वहाँ हम तीनों ने साथ रहना आरम्भ कर दिया.

 

 मगर बकरे की माँ कब तक खैर मनाती? एक दिन अचानक से वो हमारा मसीहा भागता हुआ आया और जीजीबाईसा को बताया कि बनारस के कोठे वाले हम दोनों को तलाशते फिर रहे हैं. दिल्ली आकर उन्होंने जीजीबाईसासे शादी कर ली थी.  जीजीबाई सा माँ बननें वाली थीं. बच्चा आज आ जाए, कल आ जाये वाली हालत थी. वही हुआ जिसका डर था - हालत बिगड़ी और बच्चे का जन्म हुआ. लक्ष्मी का आगमन हुआ था, ये देख जीजीबाईसा घबरा गईं. मेरी आयु उस समय कोई अठारह-उन्नीस वर्ष की होगी. मेरी ओर देख कर उन्होंने पूछा, “लाड़ी, इसको संभाल सकेगी?” हाँ कहते ही अपने गले का मंगसूत्र और दस दिन की नन्ही सी जान मेरे हवाले कर, अपने पति को कसम देते हुए कहा, “हम चारों का बच पाना नामुमकिन है मेरी बेटी को पाल लेना. मैं अपनी बेटी पर उस नर्क की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहती.. वो लोग मुझको पा लेंगे तो शांत हो जायेंगे, इसकी खोज ना करेंगे. मुझसे उनका धंधा चलता है. तुम इसको बचा लो जी, ये गंगा सी पवित्र है.  आपके हवाले एक नहीं दो जान कर रहीं हूँ, अपनी. इनका ख़याल रखना...”

 

और वो हम तीनों को उसी हालत में खड़ा छोड़, वापस बनारस चली गईं. वहाँ से हम भी छुपते छुपाते भोपाल आ गए. यहाँ एक मंदिर में तेरे पिता ने मुझसे विवाह कर लिया. तब तू दो वर्ष की थी. तब से हमारी दुनिया बदल गई...”

“अब तू ही बता कितनी गैर हैं वो...?” मंशा की आँखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. वो माँ से लिपट गई, और फूट-फूट कर रोते हुए कहा, “क्या माँ मुझे मेरे बुरे बर्ताव के लिए कभी माफ कर सकेंगी?”

.

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rahul Dangi Panchal on July 22, 2015 at 10:12am
बहुत मार्मिक
Comment by Seema Singh on July 22, 2015 at 8:17am

आभार आ० तेज वीर जी..

Comment by TEJ VEER SINGH on July 21, 2015 at 3:53pm

आदरणीय  सीमा जी,बहुत ही उमदा कहानी!हार्दिक बधाई!

Comment by Seema Singh on July 20, 2015 at 11:34pm
आ० वीर मेहता जी, आपकी प्रशंसात्मक टिपण्णी का बहुत बहुत धन्यवाद! प्रशंसा के शब्द हमेशा अच्छा करने को प्रेरित करते हैं.
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 20, 2015 at 11:00pm
आदरणीय सीमा जी कथा का धाराप्रवाह होना और पाठक को बांध कर रखना, दोनो ही बातो को पुरा करने के साथ ये रचना पाठक को भावुकता के तौर पर भी निराश नही करती यही इस कथा की सफलता भी है। मेरी ओर से सादर बधाई स्वीकार करे।
Comment by Seema Singh on July 20, 2015 at 10:27pm
आभार विनय सर..
Comment by विनय कुमार on July 20, 2015 at 5:39pm

बहुत बढ़िया कहानी , प्रवाह अंत तक बरक़रार रहता है | बधाई इस रचना के लिए आदरणीया ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 20, 2015 at 1:02pm

आदरणीया सीमा जी बहुत अच्छी कहानी हुई है. कहानी का शीर्षक और शुरूआती पंक्तियों से कहानी के मर्म का आभास हो जाता है लेकिन फिर भी आपकी सधी लेखन शैली पाठक को बाँध लेती है और एक प्रवाह में पूरी कहानी के साथ पाठक भी बहता चला जाता है.  इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

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