" अम्मा , दद्दा , छुटके ! ई देखो , नए फिसनवा की पेटी । ऊ सहर की सड़क पे मिळत रही । "
" तनिक खोल तो मुनिया , कउनो गहना- जेबर भए तो दरोग़ा के बुलवाई के पड़ी ।"
" खोलत हैं अम्मा , ई का ? भीतर तो दर्पन चिपकत रही , वो भी ठुस्स भेसईंन रंगत ।"
" का कहत है ? फैंक अबहीं । जुरूर ई सुसरा सहर वाले कौनों जादू-टोना करके पटकत गईल ।"
" पर दद्दा , ई के भीतरे जो ढेर डिबियाँ जमत रहि , ऊ का , का ? "
" जिज्जी , तनक उहे बी तो .....का पता , कौनो गोली- बिस्किट ही धरें हों । "
" सैतान ! देखत हैं अबहीं ।दईया..... डिबिया भी जादुई निकली , देखों सबहिं , साक्षात् , राम , लक्ष्मण और सीता मैया प्रगट भये गए ।"
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आंचलिक भाषा में यह कथा अच्छी हुई है आदरणीया शशि जी | हार्दिक बधाई |
अवधी में आपकी लघुकथा मूल ब्लॉग में नहीं थी आदरणीया.. खैर ..
लघुकथा कई अर्थों में उत्सुकता तो पैदा करती है लेकिन आगे कुछ विशेष नहीं निकलता. खेद है, मुझे बहुत रुचिकर नहीं लगी, आदरणीया
सादर
ऊ सहर की सड़क पे मिळत रही । ??
उ कहिन कबाड़ में ना मिल सकत ?
अच्छी कथा है !
आदरणीय , आपकी लघु कथा अच्छी लगी , आपको हार्दिक बधाई ।
आँचलिक भाषा में लिखी एक सफल लघुकथा के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीया शशि बंसल जी .
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