खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?
क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे..
क्या यहाँ है ?
बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
मात्र पद्धतियाँ दिखीं
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
क्या करे मंथन
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई
एक नचिकेता नहीं
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?
सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है
फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
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-सौरभ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी, नए छंद से मेरा तात्पर्य ऐसे छंद से नहीं था जो पहले कभी किसी रचना में प्रयोग ही न हुआ हो वरन नवगीत में बह्र-ए-रमल के इस तरह के प्रयोग को लेकर था।
रमल का प्रयोग तो कई तरह से नवगीत में किया जा सकता है जैसे एक प्रसिद्ध नवगीत याद आता है।
लाजवंती धारणाएँ / पढ़ रहीं नंगी कथाएँ / तेज़ होती जा रहीं पछुआ हवाएँ
आप ने एक अलग तरह से रमल का प्रयोग इस नवगीत में किया है जो पहले मेरी नज़र से नहीं गुज़रा। सो नवगीत की दृष्टि से आपका छंद मेरे अनुसार नया है।
आदरणीय श्री सौरभ जी , सादर अभिवादन
गीत नया , संगीत नया
लिए मधुर सुर और ताल
छंदों में छंदरचा , कर रहा कमाल .
सादर बधाई .
आदरणीय धर्मेन्द्रजी, आपने जिन शब्दों में प्रस्तुति को स्वीकारा है, वह मुझे उत्साहित तो कर ही रहा है, दायित्व से भी बोझ रहा है. आपका हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय, आपने कहा कि छन्द नया है. नहीं, छन्द नया नहीं है.
वस्तुतः बहरे रमल के तीन प्रारूपों का सचेत प्रयोग हुआ है. मुखड़े में दो तरह से यानी ज़िहाफ़त के साथ, तो अंतरा में साकिन स्वरूप में. लघु मात्रिकता के स्थान पर मात्रा को गिराने की कवायद नहीं हुई है. इसी कारण, आदरणीय, लय अटूट बनी है.
पंक्तियों को गीतिका छन्द के भिन्न ढंग में बँधा हुआ भी कह सकते हैं.
शुभ-शुभ
आदरणीय विजय निकोर साहब, आपने उदार एवं मुखर प्रतिक्रिया से मेरे रचनाप्रयास को सम्मान दिया है, इस हेतु आपका आभारी हूँ.
सादर
आदरणीय सौरभ जी, ये नवगीत आपके सबसे अच्छे नवगीतों में गिना जाएगा। लय अटूट है। छन्द नया है। आज के समय के मज़लूम की व्यथा कथा है जहाँ बाजार के सूचकांक का आधुनिक बिम्ब तो आया ही है नचिकेता जैसा पौराणिक बिम्ब भी मौजूद है। दिली दाद कुबूल कीजिए।
विस्मित हूँ... उतकृष्ट संप्रेषण ! अद्भुत ताज़गी ! इस नवगीत के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।
आदरणीय सौरभ सर
मेरे कहे को मान देने के लिए आभार
नमन
आदरणीय आशुतोष जी, आपकी उपस्थिति से स्वयं आह्लादित रहता हूँ.
हार्दिक धन्यवाद
भाई कृष्णा मिश्र,
आदरणीय मिथिलेशजी की टिप्पणी के कारण रचना सार्थक लगी., यह जानना भी संतुष्ट कर रहा है. आप जैसे रचनाकार कहने के साथ-साथ पढ़े भी. इसका लाभ आप ही को होगा.
शुभेच्छाएँ
भाई वीनसजी, रचना पर आपकी उपस्थिति आश्वस्तिकारी लगी है. हार्दिक धन्यवाद
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