वो मुझे साथ लेकर गया, उसे चुपचाप इंसान ढूंढना था|
सबसे पहले उसने मिलाया एक नामी शिक्षक से, जो बात करने में तेज़ था, लेकिन खुद नकल कर के उत्तीर्ण होता था|
फिर उसने मिलाया एक बड़े चिकित्सक से, जो अपनी चिकित्सा की पद्धति को सबसे अच्छा कहता और बाकी को बुरा|
फिर मिलाया तीन भिखारीयों से, जो अपने धर्म का हवाला देकर भीख मांगते थे और रोज़ रात को खुदके परिवार वालों को ही नशे में मारते | उनमें से एक का नाम भीखू था, दूसरे का प्रवचन और तीसरे का नेता|
आखिर में मिलाया एक लाश से, वो खुद तो चुप थी, लेकिन उसके घर के लोगों का क्रन्दन बहुत तीव्र था, हालाँकि उनके मन में धन का हिसाब चल रहा था|
उसने आखिरकार चुप्पी तोड़ी, "ऐसा लगता है कि इंसान को मैं तत्वों से नहीं दूसरों के शब्दों से बना रहा हूँ|"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
इस लघुकथा में इंगितों के माध्यम से इंसान के मूल व्यवहार और व्यावहारिक व्यवहार के बीच का ढंग से अन्तर बताया गया है. सुगढ़ प्रयास केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय चंद्रेशभाई.
बहुत बेहतरीन लघुकथा आदरणीय चंद्रेश जी , गहरे अर्थों वाली इस लघुकथा के लिए बधाई कबूल कीजिये ..
अति सुन्दर !! कथा के लिये हार्दिक बधाई
"ऐसा लगता है कि इंसान को मैं तत्वों से नहीं दूसरों के शब्दों से बना रहा हूँ|"
बहुत ही सुन्दर कटाक्ष !
आदरणीय चंद्रेश जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है.
इंसान बनता तो पांच तत्वों से ही है पर समाज नामक इकाई में सम्मिलित होते ही दूसरों के उसके विषय में क्या विचार है यह उसके कृतित्व को निर्धारित करते है यद्यपि व्यक्तित्व का निर्धारण भी किया जाता है किन्तु वह वास्तविक न होकर उनकी धारणाओं और विचारों पर आधारित होता है. अपने लघुकथा में सन्दर्भ को बड़ी चतुराई से अभिव्यक्त किया है.
बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर
सुन्दर लघु कथा के लिये बधाई । सादर |
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