बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २
हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर
राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अमोद जी बह्र बिल्कुल ठीक है। इस बह्र में २२२ को २१२१ एवं २२ को २११ भी किया जा सकता है शर्त इतनी है कि लय भंग नहीं होनी चाहिए।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी
यों तो पूरी ग़ज़ल वाह वाह हुई है. मतला ही ध्याम खींच लेता है लेकिन इन दो शेरों केलिए तो दिल खोल कर दाद दे रहा हूँ, आदरणीय -
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर
हार्दिक शुभकामनाएँ
इस स्नेह के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय मिथिलेश जी
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी,
पता नहीं इतनी शानदार ग़ज़ल नज़र से कैसे चूक गई. इस लाजवाब और बेमिसाल ग़ज़ल पर दिल से दाद हाज़िर है
हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर............ वाह वाह बेमिसाल मतला
राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर......... बेहतरीन शेर
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर....... शानदार क्या नजाकत है कहन में .... वाह वाह .... दिल से दाद कुबूल फरमाएं
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर......... बढ़िया शेर
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर................ वाह .....वाह .... कमाल
आपकी ग़ज़लों का दीवाना होता जा रहा हूँ.
बहुत उम्दा कहा , आदरणीय .
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