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राजा और दरबार की, परलोक की-संसार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
शाप की-अभिशाप की, अनुराग की-वैराग की.
घात की-आघात की, कहीं छल- कपट-प्रतिघात की.
मिलन की-वियोग की, दुर्योग की- संयोग की.
नीति की-कुनीति की, कहीं रीति की- राजनीति की.
बात ये आचार की, विचार की- संस्कार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
ज़िन्दगी की- काल की, कहीं भूत की- बेताल की.
शास्त्र की- शास्त्रार्थ की, कहीं जादुई ब्रम्हास्त्र की.
नाथ की- अनाथ की, कहीं बात की- बेबात की.
अर्थ की- अनर्थ की, कहीं स्वार्थ की- परमार्थ की.
यह कहानी कुलबधु के लाज की- चीत्कार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
जीत की- कहीं हार की,कहीं हक - कहीं अधिकार की.
मान की- अपमान की, कहीं शान और स्वाभिमान की.
झूठ की- कहीं सत्य की, कहीं भक्ति की- कहीं शक्ति की.
कहीं मित्रता में त्याग की, कहीं जननी के दुर्भाग्य की.
लोभ की- कहीं क्षोभ की, कहीं दंड की- पुरस्कार की.
गाथा है भगवान् और इंसान के व्यवहार की.
गीतकार- सतीश मापतपुरी
मोबाइल- 9334414611

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Comment by Admin on June 11, 2010 at 2:39pm
सतीश भाई पूरे महाभारत महाग्रन्थ के सार को आपने कुछ शब्दों की परिसीमा मे जिस खूबसूरती से उकेरा है वो काबिले तारीफ है, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, धन्यबाद स्वीकार करे मेरा, जय हो ,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on June 11, 2010 at 2:20pm
सुन्दर शब्दों के प्रयोग से एक कालजयी महाकाव्य का सार रखने का प्रयास है.....रचना सुन्दर बन पडी है......परन्तु कई जगह अपनी गेयता को खोती हुई प्रतीत होती है....इसको सुधारने का प्रयास करें.... आनन्द मिलेगा.......सादर.......
Comment by दुष्यंत सेवक on June 11, 2010 at 1:55pm
वाकई सार है, इतने खूबसूरत तरीके से इतने अच्छे शब्दों को गूँथ कर अपने महाभारत का जो वर्णन किया है वह निश्चय ही सराहनीय है बहुत सुंदर मापतपुरी जी
Comment by Rash Bihari Ravi on June 11, 2010 at 1:23pm
आपकी कलम की कमाल की इतनी अच्छी ख्याल की नहीं सब्द मेरे पास सिवा जय जय कर की

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