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घर  से  बाहर  जिसे  मैं ,

दर दर  ढूँढता  फिरा 

वो  बच्चा,

 मेरे  ही घर में  छिपकर 

मेरी  बौखलाहट पे ,

हँसता   रहा I

मै रहा  देहरियाँ  चूमता ,

मज्जिद  बुतखाने  की

मेरे दर पे बैठा वो ,

राह तकता  रहा 

मेरे  घर  लौट  आने की I

ढली  शाम ,  खाली   हाथ 

अब मैं  हूँ  लौट आया ,

किया  ढूँढने में  जिसे  

सारा  दिन जाया 

हाय , घर के अन्दर उसे

 मुस्कुराते पाया I

पर  अब थक  गया हूँ  

उसके साथ,

, कहाँ खेल  पाऊँगा 

बस  उसे  देखते  देखते

 यूं  ही सो  जाऊँगा I      

 मौलिक  व् अप्रकाशित  

 

 

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Comment

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Comment by pratibha pande on July 15, 2015 at 7:41am

आ० सुशील  सामा जी ,  रचना  पर सार्थक  टिपण्णी के लिए  आपका  हार्दिक  आभार 

Comment by pratibha pande on July 15, 2015 at 7:39am

रचना की  सराहना  के लिए आपका  आभार  आ०  प्रदीप जी 

Comment by Sushil Sarna on July 14, 2015 at 7:49pm

पर अब थक गया हूँ
उसके साथ,
, कहाँ खेल पाऊँगा
बस उसे देखते देखते
यूं ही सो जाऊँगा I
सुंदर प्रवाहमयी मार्मिकता युक्त रचना का अंतिम पड़ाव कटु सत्य को चरितार्थ कर रहा है … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया जी।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 14, 2015 at 2:40pm

बहुत खूब आदरणीय , सादर बधाई 

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