2122 2122 2122 212
क्या मरासिम को हमारे इक सज़ा ही मान लूँ
क़ातिबे तक़दीर की कोई जफ़ा ही मान लूँ
भीड़ में मुझ तक पहुँच के थम गये थे जो क़दम
तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ
आपकी आँखों ने लिक्खे थे कई ख़त जो मुझे
हर्फ़े बेमानी समझ उनको अदा ही मान लूँ
बन्द आखें , हाथ ऊपर कर जो मांगी थी कभी
अब असर से क्या उसे मैं बद दुआ ही मान लूँ
अब परिंदे प्यार के उड़ कर नहीं आते इधर
क्यों न अपने आशियाँ को बेसदा ही मान लूँ
यूँ तो ये सारा जहाँ है ज़ुर्म तेरा मानता
दिल मेरा कहता है तुझको बेखता ही मान लूँ
घर न मेरा मिल सका यूँ आपने खोजा बहुत
गर इजाज़त आप दें , घर बेपता ही मान लूँ
ख़ुद ब ख़ुद सर झुक गया हो जिसकी अज्मत देख के
क़्या गलत है ? गर उसे अपना ख़ुदा ही मान लूँ
तेरे तौरे ज़िन्दगी की मैं मज़म्मत क्यों करूँ
और मेरे हक़ में क़्या है, गर बुरा ही मान लूँ
यूँ तो चर्चा खूब है ,पर सिलसिला काइम नहीं
है यही बहतर , वफा को मैं हवा ही मान लूँ
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया ज्योत्सना जी , सौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ।
आदरणीया प्रतिभा जी सराहना के ल्लिये आपका आभारी हूँ ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ ल कही है आपने , तहे दिल से मुबारकबाद कबूल करें आ० गिरिराज भाई
आदरणेय मिथिलेश भाई , सराहना कर उत्साहवर्धन करने के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय आमोद भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीया बबिता जी , सराहना के लिये बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपका आशीर्वाद पाके गज़ल धन्य हुई , सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीया सविता जी , आपका आभार ।
आदरणीय विनय भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
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