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‘शहर’ जो गुलजार था!

‘शहर’ जो गुलजार था,

हाँ, धर्म का त्योहार था.

नजर किसकी लग गयी

क्यों अशांति हो गयी

दोष किसका क्या बताएं

मन में ‘भ्रान्ति’ हो गयी

होती रहती है कभी भी

छोटी मोटी तल्खियत

एक घटना को किसी ने

जोड़ देखा धर्म से

धर्म जो था जोड़ता

आपस में रंजिश हो गयी

एक चिंगारी ने गुलशन को

जलाया इस कदर  

उड़ के भागे कुछ परिंदे

गए झुलस कुछेक ‘पर’

धर्म को उलझाओ न यूं

यह बड़ा अपराध है

आ गले मिल जाओ फिर से

बन्दों का दिल साफ़ है

.

(मौलिक व अप्रकाशित) 

जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर, २२.०७.१५ 

Views: 716

Comment

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Comment by Rahul Dangi Panchal on July 22, 2015 at 10:39pm
सुन्दर रचना
Comment by maharshi tripathi on July 22, 2015 at 10:38pm

आज कल धर्मिक दंगे बहुत हो रहे हैं जिससे सुख और अशांति फैली है ,,अच्छी रचना पर आपको बधाई आ. JAWAHAR LAL SINGH जी |

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 22, 2015 at 10:37pm

एक चिंगारी ने गुलशन को

जलाया इस कदर  

उड़ के भागे कुछ परिंदे

गए झुलस कुछेक ‘पर’

धर्म को उलझाओ न यूं

यह बड़ा अपराध है

आ गले मिल जाओ फिर से

बन्दों का दिल साफ़ है-----आदरणीय सिंह साहब जी 

सादर अभिवादन .  बहुत बढ़िया तरीके से नवाजा है . सादर बधाई . 

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