2122 / 2122 / 2122 / 212 (इस्लाही ग़ज़ल) |
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बेबसी को याख़ुदा मुझ नातवाँ से दूर रख |
या तो ऐसा कर मुझे मुश्किल जहाँ से दूर रख |
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उस परीवश को घड़ी भर आज जाँ से दूर रख |
एक दिन तो जिंदगी आहो-फुगाँ से दूर रख |
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ख़ाक कर देंगे तख़य्युल-ओ-तगज्जुल मान ले |
अपनी ग़ज़लों को सियासत की ज़ुबाँ से दूर रख |
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हाशिया देता नहीं वो, कह रहा इस दीप को |
इस जमीं से दूर रख, उस आसमाँ से दूर रख |
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दौलतें तहजीब जिनकी औ खुदा पैसा रहा |
बेटियों को ऐसे ऊँचें खानदाँ से दूर रख |
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वाकिया था, हादसा बन हो गया है मज़हबी |
उस सुलगती आग को हर इक मकाँ से दूर रख |
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आसमाँ अपना दिखा के लूट लेगा छत मेरी |
ये गुजारिश है ख़ुदा, उस साएबाँ से दूर रख |
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आज मत समझा मुझे सच, राम ही मेरा ख़ुदा |
अब मुझे उस बाबरी की दास्ताँ से दूर रख |
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अब किसी की याद का बख्तर नहीं है सीने में |
ज़ार दिल को आज वहशत के समाँ से दूर रख |
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वाहवाही नासमझ की, है सुखनवर की कज़ा |
याखुदा इतना करम, उस कद्र-दाँ से दूर रख |
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जिस तरह चाहे मुझे चल आजमा ले तू, मगर |
बस जरा ना-कामयाबी.... इम्तिहाँ से दूर रख |
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आज ऐसा हो न जाए तेरा सीना चीर दे |
चल हटा दे डायरी, पागल.! वहाँ से दूर रख |
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सिर्फ क्या हासिल हुआ ‘मिथिलेश’ ये मत सोच तू |
दोसती को कम-से-कम सूदो-ज़ियाँ से दूर रख |
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Comment
आदरणीय रवि जी, आप जैसे अनुभवी रचनाकार से दाद पाना मेरे लिए मायने रखता है, आपने इस शेर पर मार्गदर्शन प्रदान है -
//वाकिया था, हादसा बन हो गया है मज़हबी
उस सुलगती आग को हर इक मकाँ से दूर रख//
इस शेर को मैंने लिखा था- मेरे मकाँ से दूर रख, जिसे आदरणीय गिरिराज सर ने सारे मकाँ से दूर रख करने हेतु मार्गदर्शन दिया तो मैंने हर इक मकाँ से दूर रख कर दिया अब आपने और दायित्व बढ़ा दिया सारे जहाँ से दूर रख.....लगा था अपना घर बचाने की चिंता में और आपने सारे जहाँ का दायित्व सौंप दिया.... आपका कहना बिलकुल सही है लेकिन चूंकि जहाँ काफिया का प्रयोग दूसरे शेर में कर चूका हूँ इसलिए इस शेर पर और कुछ सोचता हूँ या फिर ग़ज़ल से हटा दूंगा. सादर
अब किसी की याद का बख्तर नहीं जो झेल ले
बहुत ही शानदार इस्लाह..... आपकी मंजी हुई सोच और अनुभव का ही परिणाम है कि इतना सटीक मार्गदर्शन किया है.
मार्गदर्शन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.
//अस्तु टिप्पणी हेतु क्षमा // --> ऐसी टिप्पणी से मुझे दुःख होता है. कृपया क्षमा जैसे शब्द अपने अनुज के लिए प्रयोग न करें, निवेदन है. आप मेरे अग्रज है और आप जैसे अनुभवी मेरी रचना पर आ जाए तो रचना का मान बढ़ जाता है. मेरा मान बढ़ जाता है. आपने मुझे सीखने योग्य माना यही मेरे लिए बड़ी बात है. सादर
आदरणीया राजेश दीदी, ग़ज़ल आपको पसंद आई लिखना सार्थक हो गया. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन
आदरणीय विजय शंकर सर, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी, सराहना, सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय विजय निकोर सर, सराहना, स्नेह और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन
आदरणीया कांता जी सराहना, आत्मीय प्रशंसा और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय गिरिराज सर, सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आपने सही कहा 'मेरे' को 'हर इक' कर दिया सादर
आदरणीय समर कबीर जी, सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नेट समस्या की वज़ह से विलम्ब से उत्तर दे रहा हूँ. कल कुछ समय के लिए कनेक्टिविटी बनी तो एडिट कर तत्काल ब्लॉग पोस्ट किया फिर नेट ओबीओ को सपोर्ट नहीं कर रहा था. आपने सही कहा मतले के मिसरा-ए-उल में कमजोर दिल से मेरे हौसलों को दूर रख कर उसकी रक्षा करना कहना चाह रहा था जो कहने में पूरी तरह असफल रहा और मिसरे का मतलब ही दूसरा हो गया. इसलिए आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार कर दिया.
तर्ह / तरह की तरकीब पर स्पष्ट नहीं हूँ. चूंकि आदतन तरह का प्रयोग करता हूँ, इसलिए मिसरा "जिस तरह चाहे मुझे ......" से ही लिखा था बाद में एडिट कर दिया क्योकिं बहुत से मिसरों में तरह की तरकीब तर्ह देखी है. कृपया तर्ह और तरह में अंतर स्पष्ट करने की कृपा करें. सादर निवेदन....
आरणीय मिथिलेश भाई
गजल में शेर शेर दर बधाई स्वीकार करें
मैं कुछ शेर इस तरह कहने की कोशिश करता
मार्ग दर्शन दीजियेगा कि मै कितना सही हूँ जिससे कि हमारी तबा आजमाई को दिशा मिले
उस सुलगती आग को हर इक मकाँ से दूर रख
मेरी विनम्र राय में '' हर इक मकां'' से ''सारे जहां'' का अर्थ ज्यादा वसीअ हो सकता है
अब किसी की याद का बख्तर नहीं है सीने में
'' है सीने में '' को '' जो झेल ले '' कहता
हमारा ख्याल कितना सही है कृपया आप/ सुधि जन बतायें
मिथिलेश जी की रचना के बहाने हम अपनी सोच को भी मांजने की कोशिश कर रहे है । हम खुद अभी सीख रहे है
अस्तु टिप्पणी हेतु क्षमा ।
उस परीवश को घड़ी भर आज जाँ से दूर रख
एक दिन तो जिंदगी आहो-फुगाँ से दूर रख
इस शेर के लिये दिली दाद कुबुल फर्माएं
ये परीवश और आहो फ़ुगां ही तो हर ग़ज़ल की कैफियत बनते है ।
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