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बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब (इस्लाही गजल )

2212 2212 2212 22

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज  तेरे मंदिरों में अब |

मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन, 
क्यों इस तरह  मुहताज तेरे मंदिरों में अब |

मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़, 
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब | 

बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |

ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो, 
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |


हर्ष महाजन  

"मौलिक व् अप्रकाशित"


नवाज = ईश्वर/भगवान् 
मंदिर = इंसानी देह  

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Comment by Harash Mahajan on August 1, 2015 at 11:23pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी इस दाद-ओ-तहसीन के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया !!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2015 at 5:37pm

बहर की बहस अलग है पर गजल  बहुत भावपूर्ण है .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 1, 2015 at 2:45am

सही कहा राहुल भाई, काफिया के कारण मिसरा-ए-सानी बेबह्र हो जाएगा. चलिए कल पुनः विचार करते है 

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 31, 2015 at 10:58pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ये मिसरे दोनो शे'रों के पहले मिसरे है। आपने जो बहर बताई उसके हिसाब से पहले मिसरे ही ठीक बैठते है।सानी मिसरे बेबहर हो जाते है।अगर समर साहबे का इशारा बहर पर होता तो वे ये दो मिसरे ही क्यूंउठातेे ।
Comment by Harash Mahajan on July 31, 2015 at 10:27pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आमद का बहुत बहुत शुक्रिया ....
सर अगर बह्र  अगर ये हुई {221 2121 1221 212) हुई तो पूरा नक्शा ही बदल जाएगा | ये अनमोल स्नेह बनाये रखियेगा |
साभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 31, 2015 at 9:24pm

बाकी लाइव आयोजन रात बारह बजे समाप्त होगा फिर विस्तार से बात करते है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 31, 2015 at 9:23pm

"मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी मगर"
 "हर एक दिल प हो गई क़ाबिज़ ये दुश्मनी"

इन दो मिसरों को समर कबीर साहब के हिसाब से करने पर और यथास्थान मात्रायें गिराकर पढ़े राहुल भाई ...समझ आ जाएगी बात. आज मैं नेट की समस्या के चलते लाइव आयोजन से दूर रहा हूँ इसलिए वहां जा रहा हूँ बाकी बातें कल .... सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 31, 2015 at 9:14pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रणाम ।
सर अगर बहर जो आपने बताई वह है तो फिर तो लगभग पुरी गजल बेबहर हो जाती है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 31, 2015 at 8:59pm
आदरणीय हर्ष भाई जी समर कबीर साहब सही कह रहे है। दरअसल आपने जो बह्र लिखी है वो एक प्रसिद्ध बह्र से मिलती जुलती है इसलिए आपकी ग़ज़ल की लय उसी बह्र के हिसाब से हो गई है
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

इस बह्र में आपकी ग़ज़ल फिट बैठती है उसी अनुसार समर साहब ने इस्लाह दी है। विस्तार से कल बात करते है। सादर।
Comment by Rahul Dangi Panchal on July 31, 2015 at 7:47pm
आदरणीय हर्ष महाजन जी मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है आदरणीय समर साहब जी जल्दबाजी में शायद बहर के आखिर मे १२ मान बैठे है।

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