2122 2122 2122 212
किस तरह नादानियों में हम मुहब्बत कर गए,
दी सजा दुनियां ने हमको सारे अरमां मर गए |
कब तलक खारिज ये होगी हक परस्तों की ज़मीं,
महके गुलशन तो समझना कातिलों के सर गए |
बंदिशें अब बेटियों पर, आसमां को छू रहीं,
किस तरह बदला ज़माना, बरसों पीछे घर गए |
प्यार की, हर पाँव से, अब बेड़ियाँ कटने लगीं,
नफरतों में, जुल्फों से, अब फूल सारे झर गए |
लुट रही अस्मत चमन की, कागज़ी घोड़े यहाँ,
और फिर हाले-वतन भी, बद से बदतर कर गए |
"मौलिक व अप्रकाशित" © हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आदाब !! मुझे भी आपको यहाँ देख कर बहुत ख़ुशी हुई ....हम कलम अपनी जगह खुद ढूंढ लेते हैं ...यहाँ मेम्बर तो बहुत पहले से ही था कृष्णा साहब...password कहीं गायब हो गया था और न ही कुछ जियादा यहाँ आ पाया था ....यहाँ की बज़्म का अलग ही लुत्फ़ है अभी मैं जियादा कुछ देख नहीं पाया हूँ....इन्तहाई खूबसूरत और आला दर्जे के जौक कहने वाले और कितने नर्म मिजाज़ .....!!
शुक्रिया आपको ग़ज़ल पसंद आई...आभार !!
आदरणीय Sushil Sarna जी मुहब्बत है आपकी | आपने मेरे मुक्तसर से खयालात के पसंद किया | हिम्मत बढाने के इए तह-ए-दिल से मशकूर-ओ-ममनून हूँ | साभार..
हर्ष महाजन
आदरणीय saalim sheikh जी आपकी आमद का बुत बहुत शुक्रिया !!
आदरणीय vinaya kumar singh जी बेहद शुक्रिया !! जी सही कहा आपने ....
आदरणीय Manoj kumar Ahsaas जी आपकी हौंसिला अफजाई के लिए मैं दिल से धन्यवाद करता हूँ | सर गज़लिया आशार को आप बार बार पढ़ें तो ज़रूर अपना असर छोड़ेंगे....इशारा भर यही है...कि ..आजकल हमारी society में हक परस्ती इतनी बढ़ गई जिसकी वज़ह प्यार करने वाले नहीं पनप रहे ...जिस दिन सब खुश होंगे उस दिन समझ लेना की बुज़र्गों की हक परस्ती ख़तम हुई..." बंदिशें अब बेटियों पर, आसमां को छू रहीं,
किस तरह बदला ज़माना, बरसों पीछे घर गए |"........soceity की बदिशों ने बेटियों को घर में इस हद तक बंद कर दिया ...खुला ज़माना बरसों पहले छूट गया जब बिना डर के बे-खौफ घूमा करते थे....
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपकी मुहब्बतों के लिए तह-ए-दिल से मशकूर हूँ ..स,र ख्यालों को बुलंदी देना आप खूब जानते हैं ...आपकी पसंदगी, मेरे ख्यालों को रौशन कर गई जिसके लिए मैं बे-इन्तहा आभारी हूँ ....जो इज्ज़त आपने मेरी ग़ज़ल को बक्शी है उसके लिए मैं निशब्द हूँ......आखिरी बंद में जो आपने कशिश रवानगी और रौशनी की तासीर डाली है उसका कोई भी सानी नहीं हो सकता....और दाद का अंदाज़ तो दिल को छू ही गया सर !!
उम्मीद ही नहीं यकीन है आपकी इनायत ऐसे ही बनी रहेगी ...साभार !!
शुक्रिया
हर्ष महाजन
सुन्दर गज़ल हुयी है आ० हर्ष महाजन सरजी! आपको obo मंच पर पाकर मन हर्षित हुआ!
प्यार की, हर पाँव से, अब बेड़ियाँ कटने लगीं,
नफरतों में, जुल्फों से, अब फूल सारे झर गए |
वाह बहुत सुंदर बात कही कही है आपने .... हर शे'र
अलग महक से महक रहा है… हार्दिक बधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल की प्रस्तुति पर आदरणीय।
भाई बढ़िया ग़ज़ल , बधाई
आपकी पिछली ग़ज़ल पर मैंने कहा था कि कुछ अशआर अस्पष्ट रह गए हैं , जिस पर आपने इसे समझ का फेर बताया था ,
अब यहाँ अगर 'मनोज कुमार एहसास' भाई को अशआर समझने में दिक्कत हो रही है तो आदरणीय शायद कहीं तो कोई बात है .
मुझे लगता है कि ग़ज़ल के अशआर में रवानगी और सादगी का होना बेहद अहम है . बाकि मैं भी अभी सीखने की प्रक्रिया में ही हूँ , अगर कोई बात ग़लत लगे तो बराए मेहरबानी माफ़ करें
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