2122 2122 2122 212
बन गया मैं यूँ खुदा, सूली पे चढ़ जाने के बाद,
पत्थरों में पूजे मुझको, अब सितम ढाने के बाद |
बनके पत्थर देखता हूँ, इंतिहा बुत परस्ती की,
फूल बरसाए है दुनियां, चोट बरसाने के बाद |
मैं था पागल इश्क में, उसको न जाने क्या हुआ,
लौ बुझा दी इस दीये की, इतना समझाने के बाद |
बे-वफाई छेदती है, नर्म दिल की परतों को,
हूर रुख्सत हो कभी दिल में वो बस जाने के बाद |
इतना रोया हूँ, मगर अब, अश्क आँखों में नहीं,
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद |
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"मौलिक व अप्रकाशित" © हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी पसंदगी के लिए दिल से शुक्रिया आपका | आपके आने से ग़ज़ल ग़ज़ल पूर्ण हुई सर ...शुक्रिया एक बार फिर ||
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपका हार्दिल आभार .....आपकी, दोष के प्रति, निशानदेही बिलकुल सही है सर, "नर्म" की जगह नरम कह गया हूँ | मेरा दिल से आभार है सर |
मक्ते का शेर बदल दिया था सर |
अब दोनों शेर यूँ हुए सर..
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बे-वफाई छेदती है, नरम दिल की परतों को,
हूर रुख़्सत हो कभी दिल में वो बस जाने के बाद |
००००
इतना रोया/ हूँ मगर अब /अश्क आँखों/ में नहीं,
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद
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आपसे एक बार फिर अनुरोश है सर देखिएगा !!
साभार |
आदरणीय हर्ष जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है. दाद कुबूल फरमाए और गुनीजनों की इस्लाह पर गौर अवश्य फरमाएं
आदरणीय हर्ष भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
ये दोनो शे र बे बहर हो गये हैं , देख ली जियेगा --
बे-वफाई 2122 / छेदती है 2122 ,/ नरम दिल की 1222 / परतों को, 212
हूर रुक्सत हो कभी दिल में वो बस जाने के बाद | रुख़्सत या रुक्सत
इतना रोया 2122 / हूँ ‘हर्ष’ अब 2212 / अश्क आँखों 2122 / में नहीं, 212
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद |
आदरणीय Mohan Sethi 'इंतज़ार' जी आपको मेरी अदना सी कोशिश पसंद आई उसके लिए मैं तह-ए-दिल से शुक्र गुज़ार हूँ |उम्मीद करता हूँ आपका स्नेह यूँ ही बना रहेगा | आभार !!
कमाल ....वाह आदरणीय हर्ष जी
बन गया मैं यूँ खुदा, सूली पे चढ़ जाने के बाद,
पत्थरों में पूजे मुझको, अब सितम ढाने के बाद |
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी इस स्नेह के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |हाँ आपने सही निशानदेही की है ..इस दोष को बताने के लिए एक बार पुन: धन्यवाद....
इसकी जगह अभी इस मिसरे को रखता हूँ ...
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इतना रोया/ हूँ मगर अब /अश्क आँखों/ में नहीं,
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद
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साभार !!!
बनके पत्थर देखता हूँ, इंतिहा बुत परस्ती की,
फूल बरसाए है दुनियां, चोट बरसाने के बाद |
बेहतरीन गजल हुयी है आ० हर्षसरजी !तहेदिल से दाद प्रेषित हैं!
आ० शायद मक्ता में उला बेबहर लग रहा है!देख लीजिये !
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इतना रोया/ हूँ ‘हर्ष’ अब /अश्क आँखों/ में नहीं,
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद
क्षमा चाहता हूँ बह्र लिखना भूल गया ...
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