2212 1221 2212 12
दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िन्दगी में तुझसे यही सिलसिला करूँ |
दिन भर शराब पी के हुआ,था मैं दरबदर,
अब ढूंढता हूँ चादर ग़मों की सिला करूँ |
नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
दिल में बता खुदा, उनके, कैसे खिला करूँ |
अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे चमन जमी दर ज़मीं काफिला करूँ |
तन्हा है सब सफ़र और तनहा हैं रास्ते,
अब सोचता हूँ तुझसे यहाँ ही मिला करूँ |
मौलिक व अप्रकाशित © हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला जी सराहनीय शब्दों के लिए आपका दिल से आभार !!
आदरणीय समर जी केलिए बिलकुल सही कहा आपने सर !!
साभार !!
आदरणीय हर्ष जी
ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल करें ।
आदरणीय समर कबीर जी के किसी शेर पर इस्लाह से न केवल शाइर बल्कि पाठक भी लाभन्वित होते है ।
आ० मिथिलेश वामनकर जी आपकी दाद सर आँखों पर सर !!
जी हाँ समर साहिब के मार्गदर्शन में ये ग़ज़ल ने अपना रूप लिया है | तह-ए-दिल से ओ बी ओ तथा आप सब का शुक्रगुजार हूँ | साभार !
आदरणीय हर्ष जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है, आदरणीय समर कबीर जी की इस्लाह से अशआर निखर गए है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.
ग़ज़ल का पूर्ण स्वरुप कुछ यूँ हुआ ....
दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िंदगी को तुझसे कभी क्यूँ जुदा करूँ |
दिन भर शराब पीता हूँ रोता हूँ दरबदर,
ज़ख्मों भरे मैं सीने को ऐसे सिया करूँ |
नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
उनके दिलों में कैसे खुदाया खिला करूँ |
अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे शज़र ज़मीं पे लगाता चला करूं |
माना कि वो न दोस्त न दुश्मन रहा मगर,
सो 'हर्ष' सोचता हूँ मैं उस से मिला करूँ ।
०००
आ० समर कबीर जी आपके मार्ग दर्शन का बहुत बहुत शुक्रिया !!!
आखिर शेर के मिसरा-ए-ऊला में थोड़ी एडिट ...
दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िंदगी को तुझसे कभी क्यूँ जुदा करूँ |
दिन भर शराब पीता हूँ रोता हूँ दरबदर,
ज़ख्मों भरे मैं सीने को ऐसे सिया करूँ |
नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
उनके दिलों में कैसे खुदाया खिला करूँ |
अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे शज़र ज़मीं पे लगाता चला करूं |
जो लोग बो रहे हैं मेरी राह में कांटे,
अब ‘हर्ष’ सोचता हूँ मैं उनसे मिला करूँ |
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