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दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ

2212       1221      2212     12

दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िन्दगी में तुझसे यही सिलसिला करूँ |

दिन भर शराब पी के हुआ,था मैं दरबदर,
अब ढूंढता हूँ चादर ग़मों की सिला करूँ |

नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
दिल में बता खुदा, उनके, कैसे खिला करूँ |

अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे चमन  जमी दर ज़मीं  काफिला करूँ |

तन्हा है सब सफ़र और तनहा हैं रास्ते,
अब सोचता हूँ तुझसे यहाँ ही मिला करूँ |



मौलिक व अप्रकाशित © हर्ष महाजन

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Comment

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Comment by Harash Mahajan on August 10, 2015 at 1:41pm

आदरणीय रवि शुक्ला जी सराहनीय शब्दों के लिए आपका दिल से आभार !!
आदरणीय समर जी केलिए बिलकुल सही कहा आपने सर !!

साभार !!

Comment by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 1:31pm

आदरणीय हर्ष जी

ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल करें ।

आदरणीय समर कबीर जी के किसी शेर पर इस्‍लाह से न केवल शाइर बल्कि पाठक भी लाभन्वित होते है ।

Comment by Harash Mahajan on August 10, 2015 at 12:26pm

आ० मिथिलेश वामनकर जी आपकी दाद सर आँखों पर सर !!
जी हाँ समर साहिब के मार्गदर्शन में ये ग़ज़ल ने अपना रूप लिया है | तह-ए-दिल से ओ बी ओ तथा आप सब का शुक्रगुजार हूँ | साभार !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 11:47am

आदरणीय हर्ष जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है, आदरणीय समर कबीर जी की इस्लाह से अशआर निखर गए है.  शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Harash Mahajan on August 9, 2015 at 8:36pm

ग़ज़ल का पूर्ण स्वरुप कुछ यूँ हुआ ....

दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,

इस ज़िंदगी को तुझसे कभी क्यूँ जुदा करूँ |

दिन भर शराब पीता हूँ रोता हूँ दरबदर,
ज़ख्मों भरे मैं सीने को ऐसे सिया करूँ |

 

नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
उनके दिलों में कैसे खुदाया खिला करूँ |

अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,

ऐसे शज़र ज़मीं पे लगाता चला करूं |


 माना कि वो न दोस्त न दुश्मन रहा मगर,
सो 'हर्ष' सोचता हूँ मैं उस से मिला करूँ ।

०००

Comment by Harash Mahajan on August 9, 2015 at 8:34pm

आ० समर कबीर जी आपके मार्ग दर्शन का बहुत बहुत शुक्रिया !!!

Comment by Samar kabeer on August 9, 2015 at 4:06pm
जी,अब ठीक है,बधाई हो ।
Comment by Harash Mahajan on August 9, 2015 at 2:39pm
एक और कोशिश आखिरी शेर पर.....

माना कि वो न दोस्त न दुश्मन रहा मगर,
सो 'हर्ष' सोचता हूँ मैं उस से मिला करूँ ।
000
Comment by Samar kabeer on August 8, 2015 at 11:04pm
"जो लोग बो रहे हैं मेरी राह में कांटे"

ये मिसरा ठीक नहीं हुवा है,अब भी बह्र से ख़ारिज है,फिर से कोशिश करें ।
Comment by Harash Mahajan on August 8, 2015 at 8:54pm

आखिर शेर के मिसरा-ए-ऊला में थोड़ी एडिट ...

दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,

इस ज़िंदगी को तुझसे कभी क्यूँ जुदा करूँ |

दिन भर शराब पीता हूँ रोता हूँ दरबदर,
ज़ख्मों भरे मैं सीने को ऐसे सिया करूँ |

 

नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
उनके दिलों में कैसे खुदाया खिला करूँ |

अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,

ऐसे शज़र ज़मीं पे लगाता चला करूं |


  जो लोग बो रहे हैं मेरी राह में  कांटे,
अब ‘हर्ष’ सोचता हूँ मैं उनसे मिला करूँ |

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