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ये ज़िंदगी ....

ज़िंदगी हर कदम पर रंग बदलती है
कभी लहरों सी मचलती है
कभी गीली रेत पे चलती है
कभी उसके दामन में
कहकहों का शोर होता है
कभी निगाहों से बरसात होती है
संग मौसम के
फ़िज़ाएं भी रंग बदलती हैं
कभी सुख की हवाएँ चलती हैं
कभी हवाएँ दुःख में आहें भरती हैं
बड़ी अजीब है ज़िंदगी की हकीकत
जितना समझते हैं
उतनी उलझती जाती है
अन्ततः थक कर
स्वयं को शून्यता में विलीन कर देती है
न जाने कब
ज़हन में यादों का क़ाफ़िला छोड़ कर
चुपके से बंद मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती
ये ज़िंदगी
साँसों को छूती हुई
बेआवाज़ निकल जाती है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on July 30, 2015 at 1:26pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहिब प्रस्तुति पर आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया से लेखन को बल मिला। आपके इन स्नेहासक्त शब्दों के लिए और उसपर शहरयार जैसे काबिल शायर की पंक्तियों से इसका अलंकरण करने के लिया आपका तहे दिल से शुक्रिया। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 9:37pm

आदरणीय सुशील सरना सर, बहुत बढ़िया रचना हुई है आपको हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर..... आपकी रचना से गुजरते हुए शहरयार साहब याद आ गए-

जब भी मिलती है,

मुझे अजनबी लगती क्यों है

जिंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यों है 

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