खोल रखे है मैंने
खिड़कियाँ और सभी दरवाजे
भीतर आते हैं
धूप , चाँदनी ,
निशांत समीर ,
दोपहर के गरम थपेड़े ,
पूस की शीत लहर ,
बरखा बूंदे
तमस, प्रकाश
पुष्प सुवास, उमसाती गँधाती अपराह्न की हवा
और सभी कुछ
अपनी मर्जी से
और अक्सर उतर आता है
खाली आकाश भी
बस तुम नहीं आती
कितने बरस बीत गए
पर तुम नहीं आती
खोल रखे होंगे
तुमने भी शायद
खिड़कियाँ और दरवाजे
..... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शरदिंदु मुख़र्जी साहब आपकी इस प्रेरणास्पद प्रतिक्रिया हेतू आपका आभार ...
आदरणीय Mohan Sethi 'इंतज़ार' आपका दिल से शुक्रगुजार हूँ ....
आपका हार्दिक भर आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी .
आदरणीय नीरज नीर जी इस भावपूर्ण रचना के लिये बधाई ...बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति
आपका हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी कविता को समर्थन देने हेतू ....
आपका आभार इस सलाह हेतू .....
मैं ऐसा ही करने की कोशिश करूंगा ...
आदरणीय नीरज नीर जी, अभी-अभी आपकी एक बहुत ही कोमल कविता पढ़ी है, गुड़हुल के फूल और लड़कियों को लेकर. अभी प्रस्तुत कविता को देख रहा हूँ. वियोग-विह्वलता को अच्छे शब्द मिले हैं. बधाई स्वीकर करें.
आखिरी कुछ पंक्तियों को कुछ यों करना उचित हो सकता है क्या ? --
खोल रखे हैं उधर
क्या तुमने भी
खिड़कियाँ और दरवाजे ?
ऐसे प्रश्न का मतलब क्यों है, इसे आप समझेंगे ही. इस कविता को पढ़ कर बन गयी भावदशा से उपजा यह कौतुक मात्र है. अन्यथा न लीजियेगा.
शुभेच्छाएँ
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश जी
हार्दिक आभार आपका आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव साहब ॥
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