आरोह-अवरोह
कभी-कभी ... कभी कभी
आत्म-चेतन अंधेरे में ख़यालों के जंगल में
रुँधे हुए, सिमटे हुए, डरे-डरे
चुन रहा हूँ मानो अंतिम संस्कार के बाद
झुठलाती-झूठी ज़िन्दगी के फूल
और सौ-सौ प्रहरी-से खड़े आशंका के शूल
दो टूक हुई आस्था की काँट-छाँट
अच्छे-बुरे तजुर्बे बेपहचाने
पावन संकल्प, पुण्य और पाप
पानी और तेल और राख
कितना कठिन है प्रथक करना
सही और गलत के तर्क से ओझल हो कर
कठिन है अपूर्णता के प्रश्नों के आलापों में
धोखों से भरे सपनों में
स्वयं से अजनबी बन कर, हट कर
स्वयं की साँसों में सुनना, सूनी-सूनी
दर्द भरी गई-गुज़री दुर्दान्त भावनाओं की
हृदयद्रावक अकुलाहट रात भर
कठिन है बहुत
अंधेरे में औंधे मुँह, लिए गालों को हाथों में
निज घावों से जुड़े तुम्हारे घावों पर
रात की स्याही से मरहम लगाना, और
पहुँचाना तुम तक दिन में रवि-किरणों से
कल्पनाशील सुखद संवेदनाएँ
कभी-कभी ... कभी-कभी ...
टूटे आत्म-विश्वास के टुकड़ों का
विवेक-हीन सुबकना
अंतिम-दम-चीख़ों में पूछना मुझसे
था जो था, हुआ सो हुआ, जो हुआ
सब बनावटी था क्या ?
हाँ, तो उससे उभरी सूक्षम जीवन्त-पीड़ा
वह बनावटी क्यूँ नहीं
वह नपुंसक क्यूँ नहीं
अभी भी क्यूँ ...
आवर्त्ती ख़यालों के निर्जन प्रसारों में
आस्था के अधजले ठूँठ से उठता है धुआँ
बुनती है रात अनायास रहस्यमय तर्कों के जाल
अभी भी तुम्हारी याद के आते ही मेरे भीतर
काँपती है आसमानी बिजली
थरथराता है मेरा भोला विश्वास
-------
विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//स्मृति और स्मृति में पीड़ा का मर्मान्तक पक्ष जिस खूबसूरर्तीसे आप की कविता में उभर कर आता है .....//
आदरणीय गोपाल नारायन जी, मिरज़ा ग़ालिब जी ने कहा न, दर्द का हद से बड़ जाना है दवा हो जाना ...
मेरी लेखनी को आदर देने के लिए आपका शत-शत आभार, आदरणीय ।
//कठोर , कठिन जीवन - सत्य के लहराते आँचल तले व्यग्र मन का फूल चुनना और मन को गिर कर उठाना , सम्भालना फिर संशय के घेरे में स्वंय को पाना । सच बहुत कठिन ये मन होता है //
आदरणीया कांता जी, रचना के मर्म को इतना समीप से छूने के लिए आपका हृदयतल से आभार।
//आपकी लेखनी ,कल्पनाशीलता और विचारों को प्रवाह देनी की अनूठी शक्ति … अंतर्मन के भावों को चित्रित करती//
आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय सुशील जी।
// अन्दर तक हिला दिया ।बे मिसाल कविता //
रचना को मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गिरिराज जी।
आदरणीया राजेश जी,
//मर्म स्पर्शी पंक्तियाँ न जाने क्यूँ बरबस ये गीत याद आया ----किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार //..... अनाड़ी फ़िल्म का यह गीत मुझको भी बहुत प्रिय है, और दूसरों के प्रति मेरे निजि व्यवहार में मान्य रखता है।
//अपने आँसू छिपाकर दुसरे के आँसूं पौंछना इतना आसान ह क्या ?// ... नहीं, यह कदाचित आसान नहीं है ... कभी-कभी ऐसा करते अपना मन छलनी हो जाता है, पर वह "दूसरा" इतना प्रिय होता है कि पूर्ण-निस्वार्थ से यह भी करना स्वीकार होता है।
//आपकी रचनाएँ दिल में उतारकर बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं जिसका असर गहरा होता है//
मेरी रचनाओं की उदार सराहना करने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया राजेश जी।
//आस्था और विश्वास के इर्द गिर्द जीवन के आरोह और अवरोह को बड़ी गहराई से शाब्दिक करते हुए एक वैचारिक रचना प्रस्तुत हुई है//
रचना के भाव के अनुमोदन के लिए आभारी हूँ, आदरणीय मिथिलेश जी।
अभी भी तुम्हारी याद के आते ही मेरे भीतर
काँपती है आसमानी बिजली
थरथराता है मेरा भोला विश्वास------ तैतीस प्रकार के संचारी /व्यभिचारी भावो की यदि बात करें तो उनमे स्मृति और स्मृति में पीड़ा का मर्मान्तक पक्ष जिस खूबसूरर्तीसे आप की कविता में उभर कर आता है , उसके बाद तो मृत्यु ही निदान बचता है . आपकी लेखनी को पुनः प्रणाम .
आवर्त्ती ख़यालों के निर्जन प्रसारों में
आस्था के अधजले ठूँठ से उठता है धुआँ
बुनती है रात अनायास रहस्यमय तर्कों के जाल
अभी भी तुम्हारी याद के आते ही मेरे भीतर
काँपती है आसमानी बिजली
थरथराता है मेरा भोला विश्वास
.... नमन सर आपकी लेखनी ,कल्पनाशीलता और विचारों को प्रवाह देनी की अनूठी शक्ति … अंतर्मन के भावों को चित्रित करती इस दिलकश प्रस्तुति के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं आदरणीय निकोर साहिब।
टूटे आत्म-विश्वास के टुकड़ों का
विवेक-हीन सुबकना
अंतिम-दम-चीख़ों में पूछना मुझसे
था जो था, हुआ सो हुआ, जो हुआ
सब बनावटी था क्या ?
हाँ, तो उससे उभरी सूक्षम जीवन्त-पीड़ा
वह बनावटी क्यूँ नहीं
वह नपुंसक क्यूँ नहीं --- क्या बात है ,आदरणीय बड़े भाई , जिन शब्दों मे आपने टूटे दुये दिल का दर्द बयान किया है , अन्दर तक हिला दिया ।बे मिसाल कविता के लिये आपको नमन ।
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