22---22---22---2 |
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फूलों में सरगोशी है |
सच की खुशबू फैली है |
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मुमकिन को भी मायूसी |
नामुमकिन कर देती है |
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चलती है बस ताकत की |
लागर तो फरयादी है |
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मेरी जाँ की दुश्मन भी |
मेरी ही नादानी है |
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मत पूछो क्या ग़ज़लों में ? |
ये दुनिया ही दूजी है |
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मैंने पूछा कैसी हो ? |
जाने माँ क्यों रोती है |
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सूरत में आवाजें हैं |
सीरत में ख़ामोशी है |
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ख़्वाब मुफ़स्सल है लेकिन |
दुनिया बिलकुल छोटी है |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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Comment
आदरणीय सुनील जी,ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद.
आदरणीय गुमनाम जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद.
वाह खूब है ,,,,,,,,,,,
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी सराहना हेतु आभार. आपने सही कहा. आपकी इस्लाह अनुसार संशोधन कर रहा हूँ. सादर
आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल की सराहना के लिए हार्दिक आभार. नमन
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय मिथिलेश जी। एक वचन, बहुवचन के चक्कर में कई अश’आर गड़बड़ा रहे हैं।
दुनिया बिलकुल छोटी है |
खुशियाँ वापिस मिलती है / हैं |
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खुशियाँ वापिस मिलती है / हैं |
आखिर गम की बेटी है / हैं |
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माज़ी चाहे जैसा हो |
यादें प्यारी लगती है / हैं |
सुझाव ये है कि इसे दो ग़ज़लों में बाँट दीजिए। एकवचन वाली अलग और बहुवचन वाली अलग। तीन शे’र तो यही हो जाएँगें। सादर
मिथिलेश भैया ,छोटी बह्र पर आपकी ग़ज़ल पहली बार देख रही हूँ ग़ज़ल अच्छी है जो मैं ध्यान दिलाना चाहती थी दिनेश भैया कह चुके उसे निःसंदेह आप दुरुस्त कर ही लेंगे बहुत बहुत बधाई
आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. आपने सही कहा कि अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर ये प्रयास किया है. ये पूरी ग़ज़ल एक बार में लिखी है. वैसे तो ताज़ी ग़ज़ल लेकिन अंदाज़े-बयां पुराना है. शायद .. पुनः प्रयास करता हूँ. छोटी बह्र का बिलकुल नया अभ्यासी हूँ. सचेत करने के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय हर्ष जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
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