बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह
मैं समझने लग गया ख़ुद को ग़ज़ल का बादशाह
एक चेले की जुबाँ दी काट मैंने इसलिए
बात मेरी काटने का कर दिया उसने गुनाह
बात क्या है, क्यूँ है, कैसे है मुझे मतलब नहीं
मंच पर पहुँचूँ तो फिर मैं बोलता धाराप्रवाह
अब सिवा मेरे न इसको प्यार कर सकता कोई
हो गया है शाइरी का आजकल मुझसे निकाह
चार छः चमचे मिले, माइक मिला, माला मिली
और अब क्या चाहिए पूरी हुई हर एक चाह
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
मजेदार आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी!
आदरणीय सौरभ जी, उपस्थिति एवं मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। अब जो है सो तो हइये है :) मगर भविष्य में एक मजाहिया ग़ज़ल, सात अश’आर वाली अवश्य पेश की जाएगी। :)
काश शेर थोड़ा और रंगीन हुए होते. पाँच में पाँच रंगों की अपेक्षा थी. और दो और शेरों की आशा. :-))
लेकिन जो है सो वो हइये है.. (आजकल आप ऐसे ही ’बतकूचनों’ के प्रभाव में हैं.. हा हा हा..)
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत बढ़िया मजाहिया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है.
इन दिनों मैं भी मजाहिया ग़ज़ल पर प्रयासरत हूँ. सादर
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