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चाहा जिसे था दिल के बंद दरवाजे ही मिले ,
वो दोस्ती में मुझको बस अजमाते ही मिले |
ज़ब्रो ज़फ़ा गरीबों पर जिस-जिस ने की अगर,
हर जुर्म खुद खुदा को वो लिखवाते ही मिले |
बदनाम वो शहर में पर, काबे का था मरीज़,
हर चोट भी ख़ुशी से सब बतियाते ही मिले |
वो यार था अजीजों सा, दुश्मन भी था मगर,
हर राज-ए-दिल उसे पर हम बतलाते ही मिले |
इस दौर में जिधर भी देखो गम ही गम हुए,
ऐ ‘हर्ष’ ज़िन्दगी में वो भी आधे ही मिले |
"मौलिक व अप्रकाशित" © हर्ष महाजन
Comment
चाहा जिसे था दिल के बंद दरवाजे ही मिले ,
वो दोस्ती में मुझको बस अजमाते ही मिले |.... आजमइशों की क्या बात कही है आपने आदरणीय हर्ष जी। .... बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए
आदरणीय narendrasinh chauhan जी तहरीर की पसंदगी के लिए मैं बहुत बहुत आभारी हूँ सर !! शुक्रिया !!
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपकी मोहब्बतों के लिए तहेदिल से शुक्रिया लेकिन सर आपकी वेवेचना के बिना पूरी ग़ज़ल अधूरी है | मेरी इस छोटी सी तहरीर को आपकी कलम के हुस्न का इंतज़ार रहेगा | सादर !!
सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय हर्ष जी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
आदरणीय maharshi tripathi जी आप मेरी इस पेशकश पर आकर मेरे पेश्कर्दा अहसास समझने की कोशिश कर के जो इज्ज़त अफजाई की उसके लिए ह्रदय ताल से आभारी हूँ....मुझ से ये भूल हुई इन लफ़्ज़ों के मतलब मुझे पहले ही लिख देने चाहिए थे |
ज़ब्रो ज़फ़ा = ज़बरदस्ती और अन्याय...
क़ाबे - House Of Allah In Mecca
शायद अब इस नाचीज़ के अहसास ज़हन में उतरने में सहायता होगी......एक बार फिर शुक्रिया !! सादर !!
आ. Harash Mahajanजी ,काफी मसक्कत करनी पड़ रही है आपकी गजल समझने हेतु कुछ शेर ही समझ पाया ,,कुछ सब्दों के अर्थ अगर मिल जाते तो सायद कुछ समझ पता ,ज़ब्रो ज़फ़ा,काबे,
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