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ग़ज़ल_ इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2122 1212 22

आज इस बात पर ही हँसते है
अश्क़ खुशियों से कितने सस्ते है

तुझसे मिलने में वो ही बंदिश है
सारी दुनिया में जितने रस्ते है

वो मुझे रात दिन सताते है
तेरी आँखों से जो बरसते है

जब तेरा ज़िक्र कहीं आता है
होठ कुछ कहने को तरसते है

चल ज़रा बेखुदी में चलते है
बस वहीँ इश्क़ वाले बसते है

मुझमे रोती थी उनकी नादानी
वो मेरी बेबसी पे हँसते है

देखकर तेरे चेहरे की जर्दी
बेबसी मुठ्ठियों मे कसते है
.
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on September 1, 2015 at 6:28pm
बहुत आभार सर
सुधारने का प्रयास करता हु
समय मिलने पर थोडा मार्गदर्शन और कर दे
कि किन मिसरो में है रखा जाये
और किन मे हैं रखा जाये
मै थोडा विचलित हूँ

सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 1, 2015 at 5:08pm

आदरणीय मनोज भाई जी, इस ग़ज़ल में तकाबुल-ए-रदीफैन दोष, है/हैं के प्रयोग और //जब तेरा ज़िक्र कहीं आता है// इस मिसरे को बह्र के हवाले से एक बार देख लीजियेगा. इस प्रस्तुति पर बधाई 

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