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मेरी पुरानी जो वेदना थी वो आज थोड़ी सबल हुई है |
ज़रा सी फिर आँख डबडबाई इसी तरह से ग़ज़ल हुई है |
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खुदा के अपने ये नेक बन्दे कभी किसी का बुरा न करते |
बता खुशी भी क्यों जिंदगी से गरीब के बेदखल हुई हैं |
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लगी है कैसी अजीब आदत न वक़्त देखें न कोई मौका |
किसी की पीड़ा जहाँ भी देखी ये आँख रह-रह सजल हुई है |
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किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने |
हुआ पराजित ये गाँव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है |
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मिली अंधेरों में रौशनी फिर दिखी कहर में मुहब्बतें तो |
जहाँ पे कीचड़ सना हुआ था वहीँ तमन्ना कँवल हुई है |
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ये ज़िन्दगी तो हज़ार मौकों से इस कदर यूं भरी हुई है |
किसी ने मौका ज़रा भी समझा, ये जिंदगी फिर सरल हुई है |
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मुआवजें हो तमाम लेकिन वही खसारा, वही हकीकत |
जमीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है |
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Comment
आदरणीय रवि जी, आपका अनुमोदन सदैव आश्वस्त करता है.ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.
आदरणीय राहुल भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.
अादरणीय मिथिलेश जी । नमस्कार कई दिनों बाद लौटे है । आपकी एक नई ग़ज़ल और नई बह्र पर देख कर और पढ़ कर खुशी हुई
शेर दर शेर दिली दाद कुबूल करिये ।
आदरणीय समीर कबीर जी, मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ........... आपके मार्गदर्शन अनुसार 'क़हर' करता हूँ....सादर
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. आपका अनुमोदन मेरे लिए बहुत मायने रखता है. सादर
आदरणीया तनूजा जी, ग़ज़ल के अनुमोदन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.
आदरणीय मिथिलेश भाई , खूब सूरत मतला से शुरू सफर आखीर तक बहुत बढ़िया रहा । पूरी गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाई ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ,बधाई मिथिलेश जी
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