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1222 1222 12
मेरी भी दास्ताँ समझे कोई
मुझे इंसाँ यहाँ समझे कोई

मुहब्बत में तनाफ़ुर ढूँढ ले
मुझे फिर हमज़बाँ समझे कोई

दिखाता हूँ उजालों की तरफ़
ये कोशिश रायगाँ समझे कोई

मुझे भी दर्द होता है बहुत
तड़प मेरी कहाँ समझे कोई

जला के निकला हूँ इक शम्अ मैं
मगर आतिश-फिशाँ समझे कोई

(रायगाँ= व्यर्थ, आतिश-फिशाँ= ज्वालामुखी)

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2015 at 11:05pm
आदरणीय रवि शुक्लाजी आदरणीय मिथिलेश भाई एवं आदरणीया डॉ प्राची जी आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 8, 2015 at 8:34pm

बहुत प्रभावी अशआर कहे हैं आ० शिज्जू जी 

हार्दिक बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 8, 2015 at 8:34pm

बहुत प्रभावी अशआर कहे हैं आ० शिज्जू जी 

हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 3:48pm

आदरणीय शिज्जु भाई जी, बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Ravi Shukla on September 7, 2015 at 2:47pm

आदरणीय शिज्‍जू शकूर जी उम्‍दा ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करिये

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