जलते तो है सभी
पर जलने का भी होता है
एक ढंग, एक कायदा,
एक सलीका
जब मै किसी दिए को
किसी निर्जन में
जलते देखता हूँ निर्वात
तब समझ पात़ा हूँ
कि क्या होता है
तिल–तिल कर जलना,
टिम-टिम करना
घुट-घुट मरना
और तब मुझे याद आती है
मुझे मेरी माँ
जीवनदायिनी माँ
सब को संवारती
खुद को मिटाती माँ !
(अप्रकाशित व् मौलिक )
Comment
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जब मै किसी दिए को
किसी निर्जन में
जलते देखता हूँ निर्वात
तब समझ पात़ा हूँ
कि क्या होता है
तिल–तिल कर जलना//
उफ़ ! आपकी रचना ने झकझोर दिया । आपसे ऐसी ही अच्छी रचना की आशा रहती है। बधाई।
तब समझ पात़ा हूँ
कि क्या होता है
तिल–तिल कर जलना,
टिम-टिम करना
घुट-घुट मरना
और तब मुझे याद आती है
मुझे मेरी माँ
जीवनदायिनी माँ
सब को संवारती
खुद को मिटाती माँ !
माँ के भाव को सजीवता से चित्रित करती इस मार्मिक प्रस्तुति पर सादर नमन आपको आदरणीय डॉ गोपाल भाई साहिब। मन द्रवित कर गयी आपकी रचना। …_/\_
आ० मिथिलेश जी -- मां की बातें सबको रिझाती हैं , सादर .
आ०समीर कबीर साहेब - गजल हो या कविता सभी एक सुन्दर अहसास ही तो हैं --आपका शुक्रिया
महनीया छाया शुक्ल जी -- आप दो बार प्रस्तुत हुईं - मैं आभारी हूँ .
आ० शिज्जू भाई - माँ का अहसास सबको ही है , सादर .
आ0 श्याम नारायन वर्मा जी - आपका आभारी हूँ.
आ० हर्ष महाजन जी
आपका आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, शानदार और मार्मिक रचना की प्रस्तुति हुई है. आपको हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर.
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