तुम और कॉफी दोनों का साथ
कब होगा मेरे साथ ?
तुम्हारे घर का बगीचा
पात-पात शांत
बर्फ की ओढनी ओढ़े
मुकुलित कालिका लजाती
सोखती स्वर्ण-आभा
चोटी पर तिरती सूर्य-किरणें
खुशबू के गुंफन ने छुआ मुझे
लगा कि तुमने उढ़ाया हो,शॉल गुनगुना सा
आवृत्तियों ने मुझे घेरा
याद आने लगे वो दिन जब तुम
बैठे रहते थे बिल्कुल सामने मेरे
और तुम्हारी मूँगे जैसी आँखों में
छल्क पड़ती थी मैं बार-बार
और तुम बिना समेटे ही मेरे हो जाते थे
तुम्हारे नाम का कॉफी-मग
आज भी रखती हूँ अपने सामने
सच कहूँ ये कॉफी भी बे-स्वाद हो गई है
न जाने शक्कर कि जगह-नीबा क्यों
पड़ जाता है इसमें,खैर छोड़ो .......
जल्दी आओ ना !
मुझे देखने हैं श्वेत बर्फीले क्वारे नजारे
तुम्हारे साथ व्याहता बन
कब आओगे सरहद से ?
अप्रकाशित व मौलिक
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
आभार आपका Ram Ashery जी
आभार आपका आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
आदरनीया . बहुत सुन्दर भाव पूर्ण रचना , अपने होने वाले पति की बिछोह को खूब शब्द मिले हैं । बधाई आपको ।
आपने अपने मन की पीड़ा को शब्दों के माध्यम से बहुत ही सुंदर तरीके से रखा है। आपको बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
आदरणीय कांता रॉय जी आपका आभार /सादर
अदरणीय आपने बिल्कुल सत्य कहा ये मेरी न समझी है। सादर आभार
बहुत भावपूर्ण रचना . कुछ स्पेलिंग की गलतियाँ खटकती है जैसे शरहद . इसे सरहद होना चाहिए .
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