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कभी मैं खेत जैसा हूँ कभी खलिहान जैसा हूँ -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

कभी मैं खेत जैसा हूँ, कभी खलिहान जैसा हूँ

मगर परिणाम, होरी के उसी गोदान जैसा हूँ

 

मुझे इस मोह-माया, कामना ने भक्त बनवाया

नहीं तो मैं भी अंतर्मन से इक भगवान जैसा हूँ

 

कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण

बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ

 

उजाले और कुछ ताज़ी हवा से घर संवारा है 

सखी तू एक खिड़की है, मैं रोशनदान जैसा हूँ

 

निराशा में नया पथ खोज लेता हूँ सफलता का

किसी मासूम बच्चे की नवल मुस्कान जैसा हूँ

 

कभी जो आसरा अपना, कभी भगवन बताते थे

वही बच्चें जताते हैं,  किसी व्यवधान जैसा हूँ

 

नयन-जल-सा गिरा हूँ आज थोड़ा आचमन कर लो

मैं समुचित अर्ध्य पावन प्रेम के उन्वान जैसा हूँ

 

ये दुनिया राजधानी के किसी सरकारी दफ्तर-सी

जहाँ मैं सिर्फ हिंदी के किसी फरमान जैसा हूँ

 

मेरी गज़लें पढ़ो इक बार फिर आलोचना करना

ग़ज़ल की शिष्ट दुनिया के नए प्रतिमान जैसा हूँ

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर

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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:39pm

विलम्ब से प्रतिक्रिया देने के लिए सभी गुनीजनों से क्षमा चाहता हूँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:37pm

आदरणीय  Dr.Rupendra Kumar Kavi जी ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:37pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन से आश्वस्त हुआ.. ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:35pm

आदरणीय डॉ आशुतोष जी, ये बह्र ही इतनी सुरीली है कि इसमें ग़ज़ल कहते / गुनगुनाते हुए दिल खुश हो जाता है ... ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:32pm

आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल आपको पसंद आई जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. आपने सही कहा अंतिम शेर में जैसा और जो कहना चाह रहा हूँ लफ्ज़ उस भाव को स्पष्ट नहीं कर रहे है बल्कि अहं जैसा भाव उभर आया है. इस शेर को कुछ यूं भी कहा जा सकता है शायद बात बने बाकी इसे ग़ज़ल से खारिज ही मान रहा हूँ-

मेरी गज़लें पढ़ो इक बार फिर आलोचना करना

ग़ज़ल की शिष्ट दुनिया के लिए अरमान जैसा हूँ

 

ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:28pm

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी आपकी शेर दर शेर विस्तृत प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Dr.Rupendra Kumar Kavi on October 3, 2015 at 5:16pm

antarman ko chhun gayi panktiyan,,khoob

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on October 2, 2015 at 11:27am

निराशा में नया पथ खोज लेता हूँ सफलता का

किसी मासूम बच्चे की नवल मुस्कान जैसा हूँ

आ० मिथिलेश सर! आप की गजलें सब कुछ समेटें हुए परिपूर्ण लगती है,हमेशा बहुत कुछ सिखा जाती है!

हार्दिक बधाई व् अभिनन्दन!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 2, 2015 at 10:45am

आदरणीय मिथिलेश जी..यह बह पढ़ते ही कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है से पढ़ के गुनगुनाने का आनंद आने लगता है ...आपकी यह रचना भी आपकी शानदार रचनाओं में से एक है ..हर शेर उम्दा  पूरे ग़ज़ल लाजबाब मेरे तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 


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Comment by rajesh kumari on October 2, 2015 at 10:29am

वाह वाह मिथिलेश भैया ,ग़ज़ब की ग़ज़ल लिखी है मुझसे पहले विद्वद् जन समीक्षा कर ही चुके मेरा  बस ये कहना है की इन अशआरों में से कौनसा पकड़े कौन सा छोड़े मैं खुद निर्णय नहीं ले पा रही हूँ सभी स्पष्ट अपनी बात रखने में सक्षम हैं ...यदि ये मेरी ग़ज़ल होती और कोई मुझसे सिर्फ एक  शेर कम करने को कहता तो मैं अंतिम वाला हटाती .इसमें कुछ अहम् या चेलेंज की बू आ रही है हालांकि आपका भाव क्या है वो मैं बखूबी समझ रही हूँ | आपके भाव आपकी ग़ज़लें ज़मीनी होती हैं इसमें कोई दो राय नहीं है बाकि हर शेर बहुत ऊँचाई लिए हुए है दिल से ढेरों बधाई इसके लिए 

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