For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राजधानी जो आये पता कर चले--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

212—-212---212---212

 

पूछते रह गए आप क्या कर चले?

वो मेरी जिंदगी हादसा कर चले.

 

 गुमटियाँ शह्र से जो हटा कर चले

वो समझते रहे, वो भला कर चले

 

अफसरी इस तरह शान से हो रही

सर झुका कर चले, दुम हिला कर चले 

 

रोटियाँ बँट रहीं या नहीं देख लो

राजधानी जो आये पता कर चले

 

बाद मुद्दत मिले हैं, मगर इस तरह

जख्म जो भर रहा था, हरा कर चले

 

मंज़िलें खुद क़दम चूम लेंगी अगर

मुश्किलों में भी इक रासता कर चले

 

ये सियासत का घर, ये हुकूमत का दर

लोग जितने मिले, फासला कर चले

 

वैसे माँ बाप तो टोकने से रहें  

जा रहें है तो थोड़ा बता कर चले

 

फ़ासला तय हुआ और भी खुशनुमा

जो कदम से कदम हम मिला कर चले

 

ये जहाँ खूबसूरत लगा इस कदर 

जब भी आँखों से चश्मा हटा कर चले

 

वो जो देते रहे बारिशों की दुआ

धूप की चादरें भी बिछा कर चले

 

इस कदर तल्खियाँ देख अच्छी नहीं 

बागबां इक कली तो खिला कर चले

 

पेट की आग उनकी बुझे या नहीं

गर्म चूल्हा मगर वो बुझा कर चले

 

कुछ तसल्ली उन्हें दे सके या नहीं

हम मगर हाथ उनका दबा कर चले

 

ज्यूँ परिन्दों को फिर लौटना ही न हो

इस तरह से शज़र वो हिला कर चले

 

--------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
--------------------------------------------

Views: 771

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 18, 2015 at 1:06am

आदरणीया राजेश दीदी, ग़ज़ल आपको पसंद आई जानकार आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार. नमन. आपके मार्गदर्शन अनुसार शेर में  संशोधन कर रहा हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 18, 2015 at 1:04am

आदरणीय पंकज जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 18, 2015 at 12:55am

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना और शेर दर शेर मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार. नमन. आपके मार्गदर्शन अनुसार संशोधन कर रहा हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 17, 2015 at 6:18pm

वाह वाह..  बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है मिथिलेश भैया,कहीं कहीं बिंदु को लेकर टंकण त्रुटी रह गई है जो आ० गिरिराज जी ने सपष्ट कर ही दी है |

गुमटियां शहर से जो हटा कर चले

ये समझते रहें वो भला कर चले----वाह्ह्ह 

 

कुछ तसल्ली उन्हें दे सके या नहीं

हम मगर हाथ उनका दबा कर चले---बहुत उम्दा कहन

 एक शेर को इस तरह अपने चश्मे से देख रही हूँ ----

इस कदर तल्खियाँ देख अच्छी नहीं 

बागबां इक कली तो खिला कर चले 

आपको दिल से बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए .

Comment by Ravi Shukla on October 15, 2015 at 5:04pm

आदरणीय मिथिलेश जी सुझााव को मान देने के लिये आपका बहुत बहुत आभार

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 3:52pm
बहुत अच्छी ग़जल
अच्छा शेर-
अब परिंदे उड़े तो न लौटे कभी
इस तरह से शज़र वो हिला कर चले

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 15, 2015 at 3:09pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , दिली बधाइयाँ आपको , कुछ बातें सूझ रहीं है , अगर सही लगे तो स्वीकार कीजियेगा ।
पूछते रह गए आप क्या कर चले?  

वो मेरी जिंदगी हादसा कर चले. ---- बहुत सुन्दर

 

गुमटियां शहर से जो हटा कर चले  -----  गुमटियाँ शह्र से जो हटा कर चले

ये समझते रहें वो भला कर चले              वो समझते  रहे , वो भला कर चले

 

अफसरी इस तरह शान से हो रही

सर झुका कर चले, दुम हिला कर चले     -- अच्छा है

 

रोटियाँ बंट रही या नहीं देख लो    ---   रोटियाँ बंट रहीं या नहीं देख लो

राजधानी जो आये पता कर चले

 

वो बिछड़ के मुझे बाद मुद्दत मिले           बाद मुद्दत मिले हैं , मगर इस तरह

जख्म भर सा रहा था, हरा कर चले  ---   ज़ख़्म जो भर रहा था , हरा कर चले

 

मंजिलें खुद कदम चूम लेगी अगर       --  मंज़िलें खुद क़दम चूम लेंगी अगर

मुश्किलों में भी जब रासता कर चले

 

ये सियासत का घर, ये हुकूमत का दर

लोग है ये जुदा, फासला कर चले        -----  लोग जितने मिले , फासला  कर चले

 

वैसे माँ बाप तो टोकने से रहें  

जा रहें है तो थोड़ा बता कर चले  --  लाजवाब !

 

फ़ासला तय हुआ इस तरह खुशनुमा   --     फ़ासला तय हुआ और भी खुशनुमा       

वो कदम से कदम जो मिला कर चले   ---   जब क़दम से क़दम हम मिला कर चले

 

ये जहाँ खूबसूरत लगा इस कदर 

जब भी आँखों से चश्मा हटा कर चले ---------- अच्छी बात कही

 

खूब  दे तो चुके बारिशों की दुआ    ------- --  वो जो देते रहे बारिशों की दुआ

धूप की चादरें भी बिछा कर चले                 धूप की चादरें भी बिछा कर चले

 

बागबां खुद ही दुश्मन जहाँ बाग़ का  - जब आप बागबाँ को दुश्मन कह रहें हैं तो , सानी मे कली खिला के चलना मेल नही खा रहा है

कम से कम इक कली तो खिला कर चले    ---   मेरे खयाल से -- आप भी सोच लीजियेगा

 

आग उनकी बुझे तो बुझे पेट की  -----  ये शे र भी बात साफ नही कह रहा है

गर्म चूल्हा मगर वो बुझा कर चले

 

कुछ तसल्ली उन्हें दे सके या नहीं

हम मगर हाथ उनका दबा कर चले   ------ इशारों मे बहुत अच्छी बात कही

 

अब परिंदे उड़े तो न लौटे कभी                 ---- ज्यूँ परिन्दों को फिर लौटना ही न हो

इस तरह से शज़र वो हिला कर चले


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 2:49pm

आदरणीय श्याम नरेन् जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on October 15, 2015 at 1:12pm
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 12:25pm

आदरणीय रवि जी, आपकी सार्थक प्रतिक्रिया पाकर दिल खुश हो गया. आपको ग़ज़ल पसंद आई ये जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. आखिरी शेर में 'अब' शब्द से काल दोष आ रहा है आपने बिलकुल सही कहा. आपके मार्गदर्शन अनुसार इस मिसरे को यूं  कहा है- //जो परिंदे उड़े तो न लौटे कभी//---

ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

पूनम की रात (दोहा गज़ल )

धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।जगमग है कण-कण यहाँ, शुभ पूनम की रात।जर्रा - जर्रा नींद में ,…See More
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी

वहाँ  मैं भी  पहुंचा  मगर  धीरे धीरे १२२    १२२     १२२     १२२    बढी भी तो थी ये उमर धीरे…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"आ.प्राची बहन, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"कहें अमावस पूर्णिमा, जिनके मन में प्रीत लिए प्रेम की चाँदनी, लिखें मिलन के गीतपूनम की रातें…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"दोहावली***आती पूनम रात जब, मन में उमगे प्रीतकरे पूर्ण तब चाँदनी, मधुर मिलन की रीत।१।*चाहे…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"स्वागतम 🎉"
Friday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२ * कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१। * महल…See More
Thursday
Admin posted discussions
Jul 8
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service