फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन |
1121 - 2122 - 1121 – 2122 |
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कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है |
मेरा दर्द तो हमेशा, दिलो-जां जिगर रहा है |
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तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है |
कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है |
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“ये जहान छोड़ देंगे अगर आप जो न आये” |
मैं समझ रहा था शायद वो मज़ाक कर रहा है |
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कोई भी अयाँ नहीं है, कहीं भी निशाँ नहीं है |
वो मज़ार है जहाँ पर, वहाँ मेरा घर रहा है |
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कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से |
मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है |
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मुझे जन्नतों की वैसे कोई आरज़ू नहीं है |
मेरे दो जहाँ का आलम दरे-यार पर रहा है |
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जो निजात मांगता है मेरी शख्सियत से यारों |
मेरा हमसफर रहा है मेरा रहगुजर रहा है |
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जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना |
मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है |
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ये तमाम आब पीकर शबोरोज़ सो न जाना |
जो गुनाह अब्र का है कभी मेरे सर रहा है |
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बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया |
उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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Comment
आदरणीय गिरिराज सर, आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका.
आपके मार्गदर्शन अनुसार सोच रहा हूँ कि मिसरे में 'कल' लफ्ज़ का प्रयोग कर लूं. निवेदित है-
“ये जहान छोड़ देंगे कल आप जो न आये”
“ये जहान छोड़ देंगे अगर आप कल न आये”
सादर नमन
बहुत लाजवाब ग़ज़ल कही है , आदरनीय मिथिलेश भाई , दिली मुबारकबाद स्वीकार करें ।
तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है
कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है
कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से
मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है
जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना
मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है
बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया
उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है ----- ये चारों मुझे खूब अच्छे लगे , बधाइयाँ ।
तीसरे शे र मे , अगर और जो एक साथ मुझे ख़टक रहा है , अगर आपको सही लग रहा हो तो मेरी बात का ख़याल न कीजियेगा ।
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
आदरणीय गुमनाम सर जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
आदरणीय कृष्ण भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
वाह मिथिलेश जी वाह आपको अक्सर un बहर में लिखते देखा जिन पर कम लिखा गया वाकई बहुत कठिन काम को आप आसान कर देते है वाह बेहतरीन ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,बधाई
बहुत लाजव़ाब गज़ल हुयी है आ० मिथलेश सर..मतले से मकते तक हर शेर शानदार! दाद ही दाद पेश है! सादर!
आदरणीय जयनित जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
आदरणीय गोपाल सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. आपका स्नेह सदैव मेरा मनोबल बढ़ाता है. सादर
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