1222—1222—1222—1222 |
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कभी मैं खेत जैसा हूँ, कभी खलिहान जैसा हूँ |
मगर परिणाम, होरी के उसी गोदान जैसा हूँ |
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मुझे इस मोह-माया, कामना ने भक्त बनवाया |
नहीं तो मैं भी अंतर्मन से इक भगवान जैसा हूँ |
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कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण |
बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ |
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उजाले और कुछ ताज़ी हवा से घर संवारा है |
सखी तू एक खिड़की है, मैं रोशनदान जैसा हूँ |
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निराशा में नया पथ खोज लेता हूँ सफलता का |
किसी मासूम बच्चे की नवल मुस्कान जैसा हूँ |
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कभी जो आसरा अपना, कभी भगवन बताते थे |
वही बच्चें जताते हैं, किसी व्यवधान जैसा हूँ |
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नयन-जल-सा गिरा हूँ आज थोड़ा आचमन कर लो |
मैं समुचित अर्ध्य पावन प्रेम के उन्वान जैसा हूँ |
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ये दुनिया राजधानी के किसी सरकारी दफ्तर-सी |
जहाँ मैं सिर्फ हिंदी के किसी फरमान जैसा हूँ |
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मेरी गज़लें पढ़ो इक बार फिर आलोचना करना |
ग़ज़ल की शिष्ट दुनिया के नए प्रतिमान जैसा हूँ |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
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Comment
सुंदर भावों की सुंदर गजल … हार्दिक बधाई आदरणीय सादर |
कभी इक जाति के कारण, कभी बस धर्म के कारण
बँटा हर बार तब समझा कि हिन्दुस्तान जैसा हूँ
आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल पर विस्तृत और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपका मार्गदर्शन सदैव उत्साहवर्धक हुआ करता है. आपने सही कहा कि अपने अशआर में चयन करना एक मुश्किल काम है लेकिन आवश्यक भी है. अभ्यास के क्रम में ऐसे अति उत्साह को छोड़ना होगा. मैं आदरणीय धर्मेन्द्र जी के विचार से सहमत भी हूँ और उनके मार्गदर्शन का पालन भी करूँगा.
जिस शेर पर आदरणीय गोपाल सर द्वारा मार्गदर्शन दिया गया है उस पर कोई अच्छा मिसरा सूझ नहीं रहा अलबत्ता उसी भाव को नए अंदाज़ में निवेदित कर रहा हूँ-
रिटायर हो गए तो फिर नज़ारे भी बदलते हैं
नज़र हर एक जतलाए किसी सामान जैसा हूँ
आदरणीय मिथिलेश जी सभी शेर में भाव अपने आपको व्यक्त कर रहे है बागबां फिल्म की कहानी जैसे शेर को आदरणीय डा गोपाल नारायण जी के सुझाव अनुसार परिवर्तित रूप में देखने की प्रतीक्षा रहेगी । आदरणीय धर्मेन्द्र जी के विचार अनुसार 18 में से 5 या 6 श्ोर चुनना बड़ा मुश्किल काम होगा :-) ( खासकर अभ्यास के क्रम मे जहा उत्साह ज्यादा ही होता है ) खैर परिहास अपनी जगह उनकी सलाह बहुत ही गंभीर है और स्वीकार की जानी चाहिये ।
अभी हिंदी सम्ताह / पखवाड़ा बीता है सरकारी कार्यालयों में इस लिये ये शेर
ये दुनिया राजधानी के किसी सरकारी दफ्तर-सी
जहाँ मैं सिर्फ हिंदी के किसी फरमान जैसा हूँ प्रसंगानुकूल है और हिन्दी की उपेक्षित स्थिति ( जो कि निजी तौर पर हमें बहुत दुख देती है ) को बिल्कुल सटीक तरीके से बयान कर रही है । हिन्दी की बात आई है तो ग़ज़ल के हवाले से चलते चलते एक बात और कह दें
इस ग़ज़ल में हिन्दी भाषा का प्रयोग कहीं भी संप्रेषण में या रसास्वदन में बाधा नहीं उत्पन्न कर रहा है । ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार कीजिये ।
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, मुझे धीरे धीरे आभास हो चला था कि अब भर्ती के शेर वाली लताड़ मिलने वाली है. एक बात और बताऊँ इस ग़ज़ल के लगभग इतने ही अशआर और है जो मैंने पोस्ट नहीं किये है. लगभग 18 अशआर की ग़ज़ल थी जिसमें से इन अशआर का चयन किया किन्तु चयन में भी भर्ती के अश’आर का मोह छूट नहीं पाया. आपके मार्गदर्शन से थोड़ा सचेत हुआ हूँ. आपने सही कहा भर्ती के अशआर ख़ूबसूरत शे’र की ख़ूबसूरती को भी कम कर देते हैं।
जहाँ तक अन्यथा लेने की बात है तो बड़े भैया ..... अभी अदब की दुनिया में खड़ा होने के लायक भी नहीं हुआ हूँ अन्यथा लेना तो दूर की बात है. आपका अमूल्य मार्गदर्शन और स्नेह मुझे मिला ये मेरे लिए बड़ी बात है. ऐसे मार्गदर्शन की सदैव प्रतीक्षा करता हूँ जो मेरे अभ्यास को सही दिशा दें. यकीन मानिए मैं कभी भी अन्यथा नहीं लूँगा. केवल वाहवाही का आकांक्षी होता तो सोशल मीडिया को जिंदाबाद कहता. उधर तो झांकता भी नहीं. खैर. भैया इधर विशुद्ध अभ्यासी है जिसे सदैव मार्गदर्शन की आवश्यता है और होगी. वैसे भी सीखने वाले अन्यथा नहीं लेते.
आपकी सराहना और मार्गदर्शक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
भर्ती का एक शेर तो आ.गोपाल सर ने बता दिया. और कौन से ऐसे शेर है आप से मार्गदर्शन निवेदित है ताकि उन्हें यथासंभव सुधार सकूं या ख़ारिज कर दूं.
सादर
आदरणीय गोपाल सर, ग़ज़ल पर आपका आशीष पाकर धन्य हुआ. आपने सदैव मेरा मनोबल बढ़ाया है. मार्गदर्शन प्रदान करती इस सकारात्मक और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आप जिस शेर का भाव पकड़ नहीं पाए उसमें कहना चाह रहा हूँ कि
कभी बच्चे जिस पिता को अपना आसरा और भगवान् बताते थे वही पिता बुढापे में महसूस कर रहा है कि जैसे बच्चे अब पिता को किसी व्यवधान जैसा जताते है.
संभवतः कथ्य के मर्म को शाब्दिक करने में असफल रहा हूँ. इसलिए आपके मार्गदर्शन अनुसार पुनः प्रयास करता हूँ. सादर
अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय मिथिलेश जी। दिली दाद कुबूल करें।
अब आप उस मुकाम तक पहुँच चुके हैं जहाँ आपको भर्ती के अश’आर का मोह छोड़ देना चाहिए और पाँच-सात सबसे अच्छे अश’आर के साथ एक मुकम्मल ग़ज़ल पेश करनी चाहिए। भर्ती के अश’आर ख़ूबसूरत शे’र की ख़ूबसूरती को भी कम कर देते हैं। उम्मीद है इस मित्रवत सलाह को आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आ० मिथिलेश जी आप बहुत लिखते हैं और खूब लिखते हैं इसीलिये आपसे सदैव उम्मीदें भी रहती है जिन्हें आप पूरा करते है . यह गजल भी वैसी ही है . एक गजल के भाव मैं पकड़ नहीं पाया आपसे मार्गदर्शन की अपेक्षा है -
कभी जो आसरा अपना, कभी भगवन बताते थे |
वही बच्चें जताते हैं, किसी व्यवधान जैसा हूँ |
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