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खंडित प्रतिमा (लघु कथा ‘राज’)

राजमहल का वो बड़ा सा हॉल  खचाखच भरा हुआ था| सभी शिल्पकार अपनी अपनी ढकी हुई मूर्तियों को  एक पंक्ति में व्यवस्थित करने में लगे थे | थोड़ी देर में ही राजा मानसिंह मूर्तियों का अनावरण शुरू करने वाले थे| आज का विषय ‘सिर पर घड़ा लिए एक देहाती महिला’ था |

इस बार एक खास बात ये थी की पड़ोसी देश के राजा जो राजा  मानसिंह के मेहमान थे मूर्ति का चुनाव करने वाले थे| सभी आपस में फुसफुसा रहे थे की क्या इस बार भी हर बार की तरह मशहूर शिल्पकार पुष्कर सिंह ही ले जायेंगे ईनाम|

भीड़ को चीर कर आगे बढ़कर आई पत्नी की फुसफुसाहट ज्योति सिंह के कानों में पड़ी”देखा कितनी बार हम दोनों मिन्नतें करने गए तुम्हारे बाबा और माँ से कि इस बार अपनी मूर्ति ना भेजें पर उन्हें बेटे की परवाह कहाँ देखो कितने अकड़कर अपनी मूर्ति रखने में लगे हुए हैं हर एक की जबान पर पुष्कर ही पुष्कर हो रहा है अब तो मिल लिया तुम्हे ईनाम” |

“कोई बात नहीं इस बार हमने भी मेहनत  की है और तू देखती जा इस बार क्या चमत्कार होता है ईनाम तो हमे ही मिलेगा” पुष्कर  के बेटे ज्योति सिंह ने आँख दबाकर दबी आवाज में अपनी पत्नी से कहा |

फिर आई वो घड़ी एक के बाद एक सबकी मूर्तियों का अनावरण हो रहा था तालियों से हॉल गूँज रहा था ज्योति सिंह की मूर्ति  इस बार सबसे बेहतर थी राजा मानसिंह ने देखा तो उनकी  आँखें भी उस पर पलभर को टिकी रह गई |

फिर आया पुष्कर की मूर्ति का नंबर सब की साँसे अटकी हुई थी सभी को पता था हर बार की तरह पुष्कर की मूर्ति में कुछ न कुछ खास निकलेगा जैसे ही उसका पर्दा उतारा सब दंग रह गए मूर्ति खंडित थी एक हाथ टूटा हुआ था एक हाथ से ही उस नारी ने घड़ा संभाल रखा था |

“ये क्या पुष्कर सिंह ये मूर्ति खंडित क्यूँ है?”राजा मानसिंह ने गरजती आवाज में कहा | “महाराज ये एक ऐसी नारी का प्रतिमान है जिसका दायाँ हाथ टूट चूका है फिर भी वो अपने होंसले के बल पर अपना व अपने परिवार का पालन पोषण  कर रही है” अपने बेटे ज्योति की और देखते हुए पुष्कर ने कहा|

इतना सुनते ही मेहमान राजा ने पुष्कर की पीठ थपथपाई और विजेता घोषित कर दिया तथा वो मूर्ति अपने देश ले जाने के लिए राजा मानसिंह से गुजारिश की |

लौटते हुए भीड़ में अचानक अपने बेटे के काँधे पर हाथ रख कर पुष्कर ने कहा “इस बार यदि तुम ये हिमाकत न करते तो निःसंदेह तुम विजेता घोषित होते ये मैं दावे के साथ कह सकता हूँ तुम्हारी करनी ही मेरी मूर्ति को ख़ास बना गई... हमेशा याद रखना -आगे बढ़ना चाहिए पर दूसरे के सिर पर पैर रख कर नहीं”

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 15, 2015 at 3:19pm
अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीया राजेश कुमारी जी। दिली दाद कुबूल करें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 1:29pm

आदरणीया राजेश दीदी बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है. आदरणीय उस्मानी जी ने बहुत बढ़िया प्रतिक्रिया दी है कि लघु कथा का कथानक स्वयं अपना आकार ले लेता है, निसंदेह ये बात आपकी लघुकथा पर लागू होती है. इस शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आपको.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 3, 2015 at 4:51pm

आ० गिरिराज जी,आपको ये लघु कथा लाजबाब लगी मेरा लिखना सार्थक हो गया लेखक को अपने लिखे पर संतुष्टि होती है यदि एक जागरूक पाठक की ये प्रतिक्रिया हो तो |आपका दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 3, 2015 at 1:14pm

मै ज़ियादा कुछ कथा के विषय मे नही जानता पर आपकी कथा लाजवाब लगी ! आदरनीया राजेश जी दिली बधाइयाँ आपको ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 3, 2015 at 10:37am

आ० डॉ० आशुतोष जी,आपको ये लघु कथा पसंद आई प्रेरणादायक लगी मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से प्रभूत आभार आपका .  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 3, 2015 at 10:32am

आदरणीया राजेश जी / अद्भुत सन्देश देती सार्थक लघु कथा के लिए तहे दिल बधाई क़ुबूल करें ...युवा पीढी के साथ सभी को इससे सीख लेना चाहिए ..एक बार पुनः बढ़ाए के साथ सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 3, 2015 at 10:03am

आ० शेख़ शहजाद जी,आपकी प्रतिक्रिया मेरे लेखन को सार्थकता प्रदान करने के इलावा मेरी इस लघु कथा के प्रति आश्वस्तता में भी इजाफ़ा कर रही है अभिभूत हूँ आपका दिल से बहुत- बहुत आभार | 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 3, 2015 at 7:34am
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आज आपकी यह लघु कथा तीन बार पढ़ी, पुनः पढ़ने का मन करता है। प्रत्येक पंक्ति व संवाद का सृजन परिश्रम से हुआ है। बहुत अच्छा लगा।लघु कथा का कथानक स्वयं अपना आकार ले लेता है, ऐसा गुरूजन कहते हैं, वह यहां सिद्ध हो गया है। हम नये रचनाकार बहुत कुछ इस लघु कथा से सीख सकते हैं।बहुत बहुत हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ आपको।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 2, 2015 at 1:04pm

मनोज कुमार जी,आपने इस कथा का जिस गहनता से विश्लेष्ण किया है वो मेरे लिखे को सार्थकता प्रदान कर रहा है यदि सही कलाकार की दृष्टि होती है तो सुना है वो मुर्दे में भी प्राण डाल देता है फिर यहाँ तो सिर्फ एक टूटे हाथ की बात है आपका दिल से बहुत- बहुत आभार | 

Comment by मनोज अहसास on October 2, 2015 at 12:44pm
नमस्कार
कथा मे कई बातें दिखाई दी है
सामाजिक तानेबाने का बिखराव
पिता पुत्र की प्रतिस्पर्धा
कला की गहनता
और कला के प्रस्तुतीकरण की विशिष्टता
जिसने टूटे हुए हाथ मे जीत की शक्ति भर दी
कथा पाठक को बांधने मे सफल हुई है
मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ
सादर

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